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अनगार
धर्म
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मनोगत पदार्थको उपचारसे मन कहते हैं । इस मनको जो अच्छी तरह स्पष्टत्या जाननेवाला है उस ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं । यथाः
स्वमनः परीत्य यत्परमनोनुसंधाय वा परमनोर्थम् ।
विशदमनोवृत्तिरात्मा वेत्ति मनःपर्ययः स मतः ॥ विशद मनोवृत्ति-मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न विशुद्धिको धारण करनेवाला जीव पर पुरुषके उस मनोगत पदार्थको जो कि अपने अथवा दूसरेके मनके सम्बन्धसे विचार प्राप्त हुआ हो, जानता है, उस ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं। अवधिज्ञानकी तरह यह भी मुख्य देशप्रत्यक्ष ही है। इसका विशेष स्वरूप शास्त्रमें इस प्रकार कहा है कि:
चिन्तिताचिन्तितार्दादिचिन्तिताद्यर्थवेदकम् । स्यान्मनःपययज्ञानं चिन्तकश्च नृलोकगः ।। द्विधा हृत्पर्ययज्ञानमृज्व्या विपुलया धिया । अवक्रवाङ्मनःकायवत्यथर्जुमति त्रिधा ।। स्यान्मतिर्विपला षोढा वक्रावक्राणवाग्घृदि । तिष्ठतां व्यञ्जनार्थानां षड्मिदां ग्रहणं यतः ।। पूर्वास्त्रिकालरूप्यन्वर्तमाने विचिन्तके । वेत्त्यस्मिन् विपुला धीम्तु भूते भाविनि सत्यपि ॥ विनिद्राष्टदलाम्भोजसन्निभ हृदये स्थितम् । प्रोक्त द्रव्यमनस्तज्ज्ञमनःपययकारणम् ॥
अध्याय
चिन्तित आचन्तित या अद्वीचिन्तित आदि पदार्थोके जानने को मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। किंतु मनःपर्ययज्ञानके विषयभूत पदार्थका चिन्तवन करनेवाला नृलोक-अढाई द्वोपके भीतर ही रहनेवाला होना चाहिये ।