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वनगार
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में संदेहादिक न रहनेसे यथार्थ पदार्थ प्रतिभासित बुआ करते हैं।नीतिमें भी कहा है कि "ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर कर्तव्यमें दत्तचित्त होना चाहिये। क्योंकि सुखपूर्वक ली गई निद्राके द्वारा प्रसन्न हुए मनमें ज्योंके त्यों पदार्थको विषय करनेवाली बुद्धियां प्रतिबिम्बित हुआ करती हैं। सस्यरदर्शन भी इस ब्राह्ममुहूर्तके समान ही है। क्योंकि वह भी शुद्ध चित्तवृत्तिकी प्रसत्तिका कारण है। इस सम्यग्दर्शनके उद्भूत होजानेपर ही जीवोंको शुद्ध निजात्मस्वरूपका संवेदन हो सकता है; अन्यथा नहीं । किंतु इस संवेदनको प्राप्त करनेकेलिये भी पहले श्रुतज्ञानका आराधन करना चाहिये। क्योंकि सम्यग्दर्शनका आराधन होजानेपर भी श्रुतज्ञानका आराधन किये विना वह संवेदन प्राप्त नहीं हो सकता । आगममें भी कहा है कि:
गहियंत सुयणाणा पच्छा संवेयणेण भाविज्जो । जो ण हु सुअमवलंबइ सो मुज्झइ अप्पसब्भावे ।। लक्खणदो णियलक्खं अणुहवमाणस्स जं हवे सुक्खम् । सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिड्डण । लक्खमिह भणियमादा झ सम्भावसंगदो सो जि ।
वेयण तह उवलद्धी दंसणणाण च लक्खणं तस्स ।। जो सम्यग्दृष्टि श्रुतका अवलम्बन लेकर सम्यग्ज्ञानका आराधन करते हैं वे आत्मसद्भावमें मोहित होजात हैं-धोका खाते हैं । अत एव पहले श्रुतज्ञानका आराधन करके फिर सम्यग्ज्ञानका आराधन करना चाहिये । लक्षण-श्रुत-श्रुतज्ञानके द्वारा निज आत्मस्वरूप लक्ष्यका अनुभव करनेवालेको जो सुखकी प्राप्ति होती है उसको संवित्ति कहते हैं । यह संवित्ति समस्त विकल्पोंका निर्दहन करदेनेवाली है । यहांपर सद्भावोंसे युक्त ध्येय आत्माको लक्ष्य और संवेदन उपलब्धि दर्शन तथा ज्ञानको उसका लक्षण समझना चाहिये । इस कथनसे स्पष्ट है कि शब्दब्रह्मकी भावनाके निमित्तसे ही-श्रुतज्ञानका आराधन होजानेपर ही शुद्ध चिद्रूपका दर्शन हो सकता है। अन्यथा नहीं । जैसा कि आगममें भी कहा है:
स्यात्कारश्रीवासवश्यैनयाँधैः पश्यन्तीत्थं चेत्प्रमाणेन चापि ।
अध्याय
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