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अनगार
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अध्याय
सिद्धयोपशमिक्येति दृष्ट्या वैदिकयापि च ।
क्षायिकीं साधयेद् दृष्टिमिष्टदूतीं शिश्रियः ॥ ११४ ॥
इस प्रकार उद्योत उद्यवन आदि जो उपाय बताये हैं उनके द्वारा निष्पन्न हुई औपशमिक दृष्टिश्रद्धा अथवा क्षायोपशमिक श्रद्धाके द्वारा मुमुक्षुओंको क्षायिकी श्रद्धा सिद्ध करनी चाहिये। जो कि मोक्षलक्ष्मीकी, मानो, इष्ट दूती है ।
भावार्थ – औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन दोनो ही साधन हैं और क्षायिक सम्यग्दर्शन साध्य है । अत एव पहले दोनो ही सम्यग्दर्शनोंका आराधन करके मुमुक्षुको क्षायिक सम्यक्त्व सिद्ध करना चाहिये । तीन दर्शनमोहनीय - मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व तथा चार अनन्तानुबंधी कषाय-- क्रोध मान माया लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उत्पन्न होनेवाले तत्त्व श्रद्धानरूप आत्मपरिणामोंको औपशमिक सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्वप्रकृतिकी अनुभागशक्तिका शुभ परिणामोंके द्वारा निरोध होजनिपर तथा शेष छह प्रकृतियोंका उपशम होजानेपर होनेवाले तत्वार्थश्रद्धारूप परिणामको क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन सातो प्रकृतियोंका सर्वथा विनाश होजानेपर जो तत्वार्थश्रद्धान हो उसको क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसीका नाम क्षायिकी दृष्टि अथवा क्षायिकी श्रद्धा है ।
जो वचनों का उल्लंघन नहीं कर सकती अथवा जिसके वचनों का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी इष्ट दूती अवश्य ही नायिकाका नायिक के साथ संयोग करा देती है । उसी प्रकार यह क्षायिक श्रद्धा भी केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्ट्यरूप जीवन्मुक्ति अथवा परममुक्तिका जीवके साथ सम्बन्ध करा देती है। क्योंकि अत्यंत मान्य होने से यह भी अभिमत तथा अनुल्लंघ्यवचना है । अत एव मुमुक्षुओंको औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक श्र ath द्वारा क्षायिक श्रद्धा सिद्ध करनी चाहिये । जैसा कि श्री भट्टाकलंकदेवने भी कहा है:
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धर्म ०
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