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अनगार
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अध्याय
श्रतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसंधिभिः ।
परीक्ष्य तांस्तांस्तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् ॥ नयानुगत निक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रतार्पितान् ॥ अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतैः । द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्वाभिनिवेशतः ॥ जीवस्थान गुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् । तपोनिर्जीणकर्मायं विमुक्तः सुखमृच्छति ॥ इति ।
כי
श्रुतके द्वारा अनेकान्तात्मक पदार्थका ज्ञान प्राप्त करके - प्रमाणके द्वारा पदार्थको ग्रहण करके और अपेक्षाविशेषों नयोंके द्वारा उनके उन उन अनेक व्यावहारिक धर्मों की परीक्षा करके तथा भेदज्ञानके उपायभूत और उन नयोंका अनुगमन करनेवाले निक्षेपोंके द्वारा उन श्रुतार्पित भेदोंमें अर्थ वचन और प्रत्ययरूप भेदोंकी रचना करके तथा निर्देश स्वामित्व साधन अधिकरण आदि अनेक भेदरूप अनुयोगोंके द्वारा उन भेदों तथा जीवादिक द्रव्योंकी योजना करके आत्माकी अभिवृद्धि के अभिप्रायसे जीवस्थान ( जीवसमास ) गुणस्थान और मार्गणास्थान Fast अथवा इन तीनो स्थानों और तत्वोंको जाननेवाला तथा तपके द्वारा समस्त कर्मोंको निजीर्ण करदेनेवाला ही यह जीव मुक्त होकर सुखको प्राप्त होता है ।
इस प्रकार निरंतर चिन्तवन रनेको प्रवृत्त होना चाहिये ।
करनेवाले मुमुक्षुको जिस तरह बने उस तरहसे सम्यग्दर्शनका आराधन क
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ इति भद्रम् ॥
MARATHIZZE
धर्म ०
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