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VERSENTRA
बनगार
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मूढत्रयं मदाश्चाष्टो तथानायतनानि षट् ।
अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ ३ मूढता, ८ मद, ६ अनायतन, ८ शङ्कादिक ये सम्यग्दर्शनके २५ दोष हैं । जो इन उपगूहन आदि गुणोंके धारण करनेवाले नहीं हैं वें सम्यक्त्वके वैरी हैं ऐसा बताते हैं:--
यो दोषमुद्भावयति स्वयूथ्ये यः प्रत्यवस्थापयतीममित्ये ।
न योनुगृह्णाति न दीनमेनं मागं च यः प्लोषति दृरिद्वषस्ते ॥ १० ॥ चार प्रकारके मनुष्य सम्यग्दर्शनके वैरी हैं-विराधक हैं। वे कौन कौनसे हैं सो बताते हैं। एक तो वे जो कि साधर्मियोंमें सत् या असत्-मौजूद या गैरमौजूद दोषको-सम्यक्त्व प्रभृतिके अतीचारको प्रकाशित करते हैं जो उपगूहन गुणको धारण नहीं करते । दूसरे वे जो कि सम्यग्दर्शनादिकसे च्युत होते हुए साधर्मीको पुनः पूर्ववत् उसी मोक्षमार्गमें स्थापित नहीं करते-~-जो स्थितीकरणको नहीं पा. लते । तीसरे वे जो कि धर्मादि पुरुषार्थोंके साधनकी सामर्थ्य जिनकी नष्ट होगई है ऐसे दीन साधर्मीको अनुग्रह कर उसके योग्य-समर्थ नहीं बनादेते । चौथे वे जो कि सांसारिक अभ्युदयों तथा परमनिःश्रेयस-मोक्षकी प्राप्तिके उपायभूत रत्नत्रयको दग्ध करते हैं-माहात्म्यसे भ्रष्ट कर लोकमें निष्प्रभावतया प्रकाशित करते हैं।
इस प्रकार सम्यक्त्वके दोषोंका वर्णन कर उनके त्यागका उपदेश दिया । अब यहांसे उसके गुणोंका वर्णन करते हैं। जिनमेंसे सबसे पहले उपगृहन गुणकी अवश्यकर्तव्यताका उपदेश देते हैं, जो कि अन्तर्वृत्ति और बहिवृत्तिकी अपेक्षासे दो प्रकारका है ।:
धर्म खबन्धुमभिभूष्णुकषायरक्ष:,
बध्याय