________________
अनगार
धर्म
२३३
" दैव और प्रमाद- पूर्वजन्मका संचित ऐसा कोई कर्म कि जिसके उदयसे समीचीन मार्गमें प्रातबन्ध आजाय तथा असावधानता इन दोनों ही के वशसे समीचीन मार्ग-मोक्षमार्ग- सम्यग्दर्शनादिक तीनों ही अथवा इनमेंसे एक दोसे भी चलायमान होनेपर-च्युत होनेकेलिये उन्मुख होते ही विवेकरूपी सुहृद के बलसे-युक्तायुक्तके विचाररूपी मित्रकी सहायतासे शीघ्र ही मुमुक्षुओंको अपनेको फिर उसी सन्मार्गमें स्थिर कर देना चाहिये । इसी प्रकार-सन्मार्गसे च्युत होनेके लिये उन्मुख हुए दूसरे भी साधर्मियोंका जो वारिषेणकी तरह पुनः मोक्षमार्गमें दृढ करता है वह इन्द्राकिके द्वारा अच्छी तरह पूज्य हो जाता है।
भावार्थ-जिस प्रकार श्रेणिक महाराजके पुत्र वारिषणने पुष्पडालको धर्ममें स्थिर करके पूज्यता और प्रसिद्धि प्राप्त की उसी प्रकार जो कोई भी स्थितीकरण अङ्गका पालन करेगा वह भी सिद्धि और प्रसिद्धिको तथा पूज्यताको पर्याप्त रूपमें प्राप्त करेगा। धर्मसे च्युत होते हुए स्व या परको सन्मार्गमें हा स्थिर करनेका नाम स्थितीकरण है। अन्तरङ्ग और बाह्य दोनो ही प्रकारके वात्सल्य अंगका पालन करनेकेलिये प्रेरणा करते हैं:
धेनुः स्ववत्स इव रागरसादभीक्ष्णं, दृष्टिं क्षिपेन्न मनसापि सहेत्क्षतिं च। धर्मे सधर्मसु सुधीः कुशलाय बड,
प्रेमानुबन्धमथ विष्णुवदुत्सहेत ॥ १०७ ॥ जिस प्रकार धेनु-तत्काल व्याही हुई गौ अपने बच्चेपर निरंतर रागपूर्व दृष्टि रखती है-उसको हमेशह स्नेह भरी दृष्टिसे देखा करती है -- और उसकी क्षति हानिको मनसे भी नहीं सह सकती, वचन और कायकी तो बात ही क्या । अथच, प्रेमके साथ उसके कल्याण के लिये ही प्रयत्न किया करती है। उसी प्रकार विवेकी
अध्याय
२३३
अ. घ.३०