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अनगार
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मुमुक्षुको भी अपने धर्म-रत्नत्रय और सधर्मा भाइयोंपर निरंतर राग रस-प्रीतिके अतिरेकसे पूर्ण दृष्टि-अन्तर्वृति रखनी चाहिये-उनसे मनसा प्रेम करना चाहिये, और वचन तथा कृतिकी तो बात ही क्या, मनसे भी उनपर आये हुए उपद्रवोंको न सहना चाहिये-उनकी क्षतिपर क्षमा न करनी चाहिये । अथच, विष्णुकुमार मुनिकी तहर प्रेमबन्धका अनुवर्तन करते हुए उनकी कुशलता-कल्याण-रक्षाकेलिये ही सदा उत्साह-उद्योग करना चाहिये।
भावार्थ---वात्सल्य दो प्रकारका है-अन्तरंग और बाह्य । धर्म और धर्मात्माओंपर हृदयसे स्नेह करना अन्तरङ्ग वात्सल्य और तदनुसार उनकी रक्षादिकेलिये प्रयत्न करना बहिरंग वात्सल्य है। मुमुक्षुओंको इन दोनो ही वात्सल्योंका. पालन करना चाहिये ।
अन्तरंग और बाह्य दोनो प्रकारकी प्रभावनाओंका स्वरूप बताते हैं:
रत्नत्रयं परमधाम सदानुबध्नन्, स्वस्य प्रभावमभितोडुतमारभेत । विद्यातपोयजनदानमुखावदाने,
वज्रादिवजिनमतश्रियमुडरेच्च ॥ १०८ ॥ मुमुक्षुको उचित है कि वह सर्वत्र और सर्वदा प्रकृष्ट तेजोरूप अथवा उसके कारण रत्नत्रयका अनुवर्तन करता हुआ हर तरहसे अपने-अपनी आत्माके अद्भुत-आश्चर्यकारी प्रभाव-अचिन्त्य शक्तिविशेषको बढानेका प्रयत्न करे । तथा वज्रकुमार प्रभृति जो जो प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं उनके समान विद्या तप यजन दान इत्यादि अनेक अवदान-अद्भुत कर्म करके जिनमतकी श्रीका उद्धार करे, जिनशासनके माहात्म्यको जगत में प्रकाशित करे।
अध्याय
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