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अनगार
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अध्याय
दूसरे और भी जो अनेक प्रकारके मिथ्यादृष्टि हैं उनके साथ भी संसर्ग न करनेका उपदेश देते हैं ।
मुद्रां सांव्यवहारिकीं त्रिजगतीवन्द्यामपोह्यातीं,
वामां केचिदयवो व्यवहरन्त्यन्ये बहिस्तां श्रिताः ।
लोकं भूतवदाविशन्त्यवशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तकैस्त्रिधा परिचयं पुंदेहमोहैस्त्यज ॥ ९६ ॥
आईती - जैनी अचेलक्यादि चिन्होंके द्वारा व्यक्त होनेवाली वीतराग मुद्रा ही सांव्यवहारिकी-समीचीन है; क्योंकि उसीसे वृत्ति - निवृत्तिरूप व्यवहार भले प्रकार सिद्ध होसकता है। अंत एव वही तीनो लोकोंकेलिये वन्द्य-नमस्कारके योग्य है। किंतु ऐसा होते हुए भी निग्रंथ लिङ्गके ही समस्त इष्ट प्रयोजनोंके साधन रहते हुए भी कोई कोई अहंयु- मैं भी कोई चीज हूं. ऐसा अहंकार - गर्व रखनेवाले तापस लोक प्रभृति उसका अपवाद निषेध कर के जटा रखना भस्म लगाना दण्ड त्रिदण्ड आदिका धारण करना इत्यादि नाना प्रकारकी विपरीत मुद्राओंव्रतचिन्होंको धारण किया करते हैं। जिस तरहसे कि लोकमें कोई पुरुष सच्चे सिक्काको छोडकर नकली सिक्का धारण करे | इनके सिवाय कितने ही ऐसे भी हैं जो कि द्रव्यसे जिनलिङ्गके ही धारण करनेवाले हैं जो कि अपनेको मुनि ही मानते हैं । किंतु वास्तवमें वे वशी - जितेंन्द्रिय नहीं हैं। यही कारण है कि उन्होंने युक्त आती मुद्राको बाहरसे—शरीरसे ही धारण कर रक्खा है; न कि मन भावसे। ये लोक धर्मकी कामना रखनेवाले जीवों में भूत या ग्रहकी तरहसे प्रवेश करजाया करते हैं और उनसे ऐसी ऐसी चेष्टायें कराते हैं जैसे कि कोई भृताविष्ट पुरुष किया करता है। इनके सिवाय तीसरी तरहके ऐसे भी लोग हैं जो कि द्रव्य जिनलिंगके धारक होकर भी मठोंके स्वामी हैं । ये जिनलिंगकी नकल बनाकर म्लेच्छके समान आचरणकरते हैं- लोक और शास्त्र दोनों ही से विरुद्ध क्रिया करते हैं । जैसा कि कहा भी है:--
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