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भावार्थ--तपोमदसे चारित्र और सम्यक्त्व दोनो ही दूषित होते हैं । ।
अनगार
पूजामद करनेवालेके दोष दिखाते हैं :
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स्वे वर्गे सकले प्रमाणमहमित्येतत्कियद्यावता, पौरा जानपदाश्च संत्यपि मम श्वासेन सर्वे सदा । यत्र काप्युत यामि तत्र सपुरस्कारां लभे सक्रिया,
मित्यर्चामदमूर्णनाभवदधस्तंतुं वितन्वन् पतेत् ॥ ९४ ॥ जब कि सभी नगरनिवासी और देशवासी लोग सदा मेरे श्वासके साथ ही श्वास लेते हैं, सबका मैं ही प्राण हूं। और एक मेरे ही आधीन सब ठहरे हुए हैं। एवं मेरे ही नेतृत्व में सब चलरहे हैं । अथवा जहां कही भी मैं जाता हूं वहीं मेरा सपुरस्कार सत्कार होता है-- सभी जगह उत्तम कर्मों में मुझको अगुआ बनाकर मेरी पूजा की जाती है । तब अपने ही इस समस्त वर्गमें--सजातीय समूहमें सदा और सर्वत्र मैं ही प्रमाण माना जाऊं-मैं ही अविसंवादी माने जानेकी प्रतिष्ठा प्राप्त करूं तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। इस प्रकार अपने पूजामद-पूज्यताके अहङ्कार को बढानेवाला मनुष्य इस तरहसे भ्रष्ट होकर हीन पदमें जाकर पडजाता है। जिस तरहसे तंतुओंको विस्तृत करता हुआ ऊर्णनाभ- मकडा ।
भावार्थ-जिस प्रकार अपनी लारको तंतु बनानेवाला मकडा नीचेकी तरफ गिरजाता है उसी प्रकार अपने ही अहंकार- पूजामदके कारण मनुष्य भ्रष्ट होकर पूज्यतासे गिरजाता है ।
इस प्रकार प्रसङ्गोपात्त जाति आदि आठ मदोंके साथ साथ मिथ्यात्व नामक अनायतनकी त्याज्यता साधर्मियोंको बताकर सात प्रकारके तद्वान्-मिथ्यादृष्टियोंकी त्याज्यता बताते हैं :
बध्याय
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