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बनगार
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पण्डितंभ्रष्टचारित्रैवठरैश्च तपोधनैः ।
शासन जिनचन्द्रम्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ . चारित्रसे भ्रष्ट हुए पंडित और मठपति तपोधन इन्होंने जिनचन्द्र के निर्मल शासनको मलिन करदिया।
. अत एव हे सम्यक्त्वके आगधना करनेवाले भव्य ! तू इन तीनो या इनके समान और भी अनेक कुत्सित व्यक्तियोंसे जो कि मनुष्यशरीरके आकारमें साक्षात् मोह हैं; संसर्ग करना बिलकुल-तीनो ही प्रकारसे-मन वचन और कायसे छोडेदे। मनसे इनका अनुमोदन वचनसे स्तुति और कायसे संगति करना छोडदे ।
क्रमप्राप्त मिथ्याज्ञान नामके अनायतनका त्याग कराते हैं - विद्वानविद्याशाकिन्या: क्रूरं गे मुपप्लवम् ।
निरुन्ध्यादपराध्यन्ती प्रज्ञां सर्वत्र सर्वदा ॥ ९७ ॥ . प्रज्ञा - भूत भविष्यत् और वर्तमान इन तीनो कालवर्ती विषयोंके अर्थका परिच्छेदन करनेवाली बुद्धिका काम है कि वह अविद्यारूपी शाकिनी-चुडेलके कर्कश-अत्यंत क्रूर उपसर्गको सदा और सर्वत्र रोके; किंतु यदि वह वैसा करनेमें अपराध कर-विभ्रमको प्राप्त होजाय तो विद्वान् विचारशील व्यक्तिको चाहिये कि वह उसको वैसा अपराध करनेसे रोके।
अध्याय
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१-जैसा कि कहा भी है
कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसंमतिः।
।' असंपृक्तिरनुत्कीर्तिर मूढा दृष्टिरुच्यते ॥ . दुःखोंके कारणभूत खोटे मार्गकी या उस मार्गपर चलनेवालोंके प्रति अपनी समति प्रकट न करना, उनसे सम्बन्ध न रखना और उनकी प्रशंसादि भी न करना इसको सम्यग्दर्शनका अमूढदृष्टि अंग कहते हैं।
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