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बनगार
धर्म
मिथ्याज्ञानियोंसे संपर्क करनेका निषेध करते हैं:
कुहेतुनयदृष्टान्तगरलोद्गारदारुणैः ।
आचार्यव्यञ्जनैः सङ्गं भुजङ्गैर्जातु न व्रजेत् ॥ ९८ ॥ " मोह मूछादेका कारण होनेसे गरल-तीव्र विषके समान विपरीत उदाहरणों खोटे पक्षों और कुत्सित हेतुओं-प्रमाणबाधित युक्तियोंके उद्गार-उत्सर्गसे दारुण-अत्यंत भयंकर इन आचार्योंको भुजङ्ग-विट-धूर्त या काला नाग समझना चाहिये। क्योंकि सच्चरित्रका आचरण करनेवाले आचार्योंके वेषमें ये अपने असली स्वरूपको छिपानेवाले हैं । अत एव सम्यग्दृष्टिको चाहिये कि वह इन भुजङ्गोंकी संगति कदाचित् भी न करे।
इसी बातको फिर भी प्रकारान्तरसे कहते हैं:
भारयित्वा पटीयांसमप्यज्ञानविषेण ये। विचेष्टयन्ति संचक्ष्यास्ते क्षुद्राः क्षुद्रमंत्रिवत् ॥ ९९॥
अध्याय ।
सर्पविष आदिकके झाडनेवालोंमेंसे जिस प्रकार क्षुद्र पुरुष जिनको कि उस विषयका सच्चा ज्ञान नहीं है और जो दुष्ट हैं वे कोई दृष्टपूर्व हो या अदृष्टपूर्व, विद्वान् हो या मूर्ख; कैसा भी कोई क्यों न हो, चाहे स्वयंको भी इस बातका संदेह ही क्यों न हो कि इसको सर्पने काटा है; तो भी किसी जहरीले पदार्थसे उसको विह्वल करके अनेक प्रकार उससे विपरीत प्रवृत्ति कराते हैं। उसी प्रकार ये क्षुद्र मिथ्यादृष्टि मिथ्योपदेष्टा सभी लोगोंको -मृोंकी तो बात ही क्या, बडे बडे चतुर विद्वानोंको भी अपने मिथ्याज्ञानरूपी जहरीले पदार्थसे मोहित कर उनसे विपरीत वर्तन कराते हैं। अत एव सम्पक्त्वका आराधन करनेवालोंको इनका त्याग ही करना चाहिये।
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