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बनगार
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मिथ्याचारित्रनामक अनायतनका निषेध करते हैं:
रागाद्यैर्वा विषाद्यैर्वा न हन्यादात्मवत्परम् ।
ध्रुवं हि प्राग्वधेऽनन्तं दुःखं भाज्यमुदग्वधे ॥ १० ॥ जो मिथ्याचारित्रनामक अनायतनका त्याग करना चाहता है ऐसे सम्यग्दृष्टिको चाहिये कि वह अपनी तरह दूसरेका भी-अपना और पराया किसीका भी रागद्वेषादिकके द्वारा -दृष्ट श्रुत अथवा अनुभूत भोगोंकी आकाङ्क्षारूप निदानबन्ध प्रभृति समस्त दोषोंसे, जो कि मोहनीय कर्मके उदयजनित विकार हैं, अथवा इन भावोंसे ही नहीं किन्तु विष शस्त्र जल अग्नि आदि द्रव्योंसे भी वध न करे। क्योंकि इन दोनों ही का फल अनंत दुःख अवश्यम्भावी है। हां, एक बात अवश्य है, वह यह कि दूसरे पक्षमें कदाचित् वह दुःखरूप फल प्राप्त न भी हो; क्योंकि यदि कोई विष शस्त्रादिके द्वारा मारा गया जीव पश्चनमस्कारमंत्रके स्मरण आदिमें दत्तचित्त रहा तो उसे वह अनन्त दुःख नहीं भोगना पडेगा; अन्यथा वह भोगेगा ही । अत एव स्वपरके द्रव्यवधमें कदाचित् विकल्प भी हो सकता है। किंतु स्व और परके भाववधका फल अनन्त दुःख तो भोगना ही होगा।
अध्याय
भावार्थ-स्व और परका वधरूप मिथ्याचारित्र नामका अनायतन दो प्रकारका है; भाव दूसरा द्रव्य । रागद्वेषादिके द्वारा होनेवाले स्वपरघातको भाव और विष शस्त्र आदिके द्वारा होनेवाले स्वपरघातको द्रव्य कहते हैं । रागादि परिणामोंसे अपने और पराये विशुद्ध परिणामरूप समताभावोंका घात होता है अत एव इस मिथ्या चारित्ररूप अनायतनसेवासे सम्यक्त्व मलिन हो जाता है । यही बात द्रव्यमिथ्याचारित्रसेवाके विषयमें भी समझनी चाहिये । क्योंकि द्रव्य और भाव दोनो ही परस्परमें सम्बद्ध हैं। जैसा कि परस्परके समुच्चय अर्थमें आये हुए दोनो वाशब्दोंसे प्रकट किया गया है ।