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अनगार
| धर्म
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उसने अपने जिन शत्रुओंका-कोरयों का पराभव किया था उनकी शक्तिको शाकिनी-चुडेलके समान कृष्णकी मायाने नष्ट किया था । अत एव जगत् के इन वीरोंको अर्जुनके समान ही होना चाहिये । इस तरहसे सभाओंमें बीररसकी बातें कथाओं के प्रसङ्गरूपी महान् ऊर्मियों-लहरोंकी अनियत प्रवृत्तिके द्वारा जो अपने हृदयके भीतर उत्प्लावित किया गया है आत्मबलकी प्रशंसा करनेकेलिये ऊपरको उकसाया गया है, ऐसा भी कुलीन-उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेवाला, अपने बाहुपरिमल-प्रशस्त शरीरमामर्थ्यको जिव्हाश्चलका लक्ष्य नहीं बनाता । निमित्त मिलनेपर भी वह अपने मुख से अपने बलकी कभी प्रशंसा नहीं करता । वह उधर लक्ष्य भी नहीं देता।
तपका मद दुर्जय है; इस बातको स्पष्ट करते हैं:कर्मारिक्षयकारण तप इति ज्ञात्वा तपस्तप्यते, कोप्येतर्हि यदीह तर्हि विषयाकांक्षा पुरो धावति । अप्येकं दिनमीदृशस्य तपसो जानीत यस्तत्पद,- .
द्वंद्वं मूर्ध्नि वहेयमित्यपि दृशं मन्नाति मोहासुरः ॥ ९३ ॥ जैसा निरीहतया तप मैं करता हूं वसे तपके एक दिनको भी जाननेवाला-एक दिन भी उस तरहका तपश्चरण करनेवाला यदि कोई हो तो मैं उसके चरणयुगलको अपने शिरपर रखलू । तप करना सहज नहीं है । यह मोहप्रभृति कर्मशत्रुओंके क्षयका कारण है । ऐसा समझकर यदि कोई आजकल तपका संचय भी करता है-मोक्षके लक्ष्यसे-आत्मकल्याणकेलिये यदि कोई तप करे भी तो विषयोंकी आकाक्षा उसके आगे आगे दौडती है। उ. नका वह तप ऋद्धि समृद्धि के लाभ इच्छा, स्वर्गीय सुखके भोगकी लिप्सा और सांसारिक अभ्युदयोंकी आका
झाओंसे शीघ्र ही दूषित होजाता है। इस प्रकार मोह--तपोमदरूपी असुर केवल उनके तप या चारित्रको ही भ्रष्ट-नष्ट-दुषित नहीं करता किंतु सम्यक्त्वको भी कदर्थित करदेता है।
अध्याय