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रूपी गंधहस्ती विप्लावित कर सकता है ? कभी नहीं । अत एव तू किसी प्रकारका भय मत करे और निर्भय होकर सम्यग्दर्शनका आराधन कर !
बनगार
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जो मनुष्य जाति आदिके मदसे अपनेमें उत्कर्षकी संभावना करता है वह सधर्माओंका अभिभवपराभव करता है । इसीलिये कहना चाहिये कि वह सम्यत्क्वके माहात्म्यमें हानि पहुंचाता है। यही बात दिखाते हैं:
संभावयन् जातिकुलाभिरूप्यविभूतिधीशक्तितपोर्चनाभिः ।
स्वोत्कर्षमन्यस्य सधर्मणो वा कुर्वन् प्रधर्ष प्रदुनोति दृष्टिम् ॥ ८७ ॥ जाति-मातृपक्ष, कुल-पितृपक्ष, आभिरूप्य-सौरूप्य, विभूति-ग्राम नगर सुवर्णादि समृद्धि, धी-शिल्पकलादिका ज्ञान, शक्ति-पराक्रम, तप--अनशनादिक अनुष्ठान, अर्चना-पूजा, इन सब कारणोंसे अथवा इनमेंसे किसी एक दोके द्वारा " मैं इससे उत्कृष्ट हूं" ऐसी उत्प्रेक्षा करनेवाला मनुष्य अपने में केवल उत्कर्षकी संभावना ही करता है। इतना ही नहीं किंतु, इनके द्वारा वह दूसरे साधर्मियोंका तिरस्कार भी करता है। यही कारण है कि वह सम्यक्त्वको अपने माहात्म्य-महत्वसे गिरा देता है-कम करदेता है-समल बना देता है-. कलांकित कर देता है। जातिमद और कुलमदके त्याग करनेका उपदेश देते हैं: ....
पुंसोऽपि क्षतसत्त्वमाकुलयति प्राय: कलङ्कः कलौ, सदृग्वृत्तवदान्यतावसुकलासौरूप्यशौर्यादिभिः । स्त्रीपुरैः प्रथितैः स्फुरत्यभिजने जातोऽसि चैदैवत,
बध्याय
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