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बनगार
सौंदर्यके मदसे आविष्ट रहनेवाले पुरुषके सम्यग्दर्शनमें जो दोष उत्पन्न होता है उसको दिखाते हैं:
यानारोप्य प्रकृतिसुभगानङ्गनायाः पुमांसं, पुंसश्चास्यादिषु कविठका मोहयन्त्यङ्गनां द्राक् । तानिन्द्वादीन्न परमसहन्नुन्मदिष्णून्वपुस्ते, स्रष्टाऽस्राक्षीद ध्रुवमनुपमं त्वां च विश्वं विजिष्णुम् ॥ ८९॥ .
लोकोत्तर वर्णन करनेम निपुण कवियोंको ठगके समान समझना चाहिये । क्योंकि वे अपने पुरुषार्थका उपमर्द---दुरुपयोग करते हैं और अपनी कृतिसे स्त्री पुरुषोंको सच्चे कर्तव्यसे वश्चित रखते हैं। इस तरहके ये कविठग अङ्गनाओंक मुख और नेत्र प्रभृति उपमेय पदार्थों में जिन स्वभावसे ही रमणीय चन्द्रमा कमल किसलय कलश (सुवर्णघट ) आदि उपमानभृत पदार्थोकी कल्पना करके शीघ्र ही--वर्णन करते ही मनुष्यों - पुरुषोंके हृदयको मोहित करदेते हैं और इसी प्रकार पुरुषोंके मुखादिकमें भी जिन स्वभावसुंदर चन्द्रादिककी कल्पना कर स्त्रियोंको मोहित कर देते हैं। मुझे मालुम पडता है, मानों उन्मदिष्णु-अपने उत्कर्षकी संभावना करनेवाले उन चन्द्रमा कमल किसलय आदि पदार्थोंको सहन न करके विधाताने तेरा यह अनुपम शरीर बनाया है जिसमें कि ये मुखादिक चन्द्रमादिककी उपमासे भी परे हैं । किंतु चन्द्रमादिकको भी उपमेय बनानेकेलिये तेरे इस शरीरकी सृष्टि की है। किंतु इतना ही नहीं है ये चन्द्रादिक अपने उत्कर्षकी संभावना करने लगेंगे इस बातको न सह करके ही केवल विधाताने तेरा यह अनुपम शरीर नहीं बनाया है किंतु विश्वपर विजय प्राप्त करसकनेवाले तुझको भी सहन न करके बनाया है। क्योंकि इसमें सन्देह नहीं कि सम्यक्त्वके माहात्म्यसे तू अच्छी तरह समस्त जगत्पर विजयलाभ कर सकता या करलेतायदि
बध्याय