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अनगार
शरीर, तथा ऐसे शरीरका सब बातोंके मिल जानेपरम
एव उक्त बातोंके
समनस्क होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। समनस्क नारकी और तिथंच भी होते हैं अतएव समनस्कता प्राप्त करके भी मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना और भी दुर्लभ है। मनुष्य होकर भी यदि नाचगोत्री या म्लेच्छ हुए तो उससे क्या प्रयोजन! अतएव मनुष्यताके साथ साथ आर्यताका प्राप्त होना गुणोंमें कृतज्ञताके समान दुष्प्राप्य है। आर्य होनेपर भी उच्च गोत्र, और उच्च गोत्रके भी बाद समीचीन शरीर, तथा ऐसे शरीरके भी मिल जानेपर विभूति और विभूतिके भी मिल जानेपर आरोग्यकी प्राप्ति होना अत्यंत कठिन है। इसी तरह उक्त सब बातोंके मिल जानेपर भी मनुष्योंकी बुद्धि प्रायः करके धर्मविरुद्ध क्रियाओंके करने और व्यसनादिकोंके सेवनमें ही प्रवृत्त होजाया करती है । अतएव उक्त बातोंके अनंतर ऐसी सद्बुद्धिका प्राप्त होना और भी कठिन है कि जिसके द्वारा धर्ममें प्रवृत्ति हो सके। सद्बुद्धिके द्वारा प्राप्त करने योग्य फलरूप समीचीन धर्मका प्राप्त होना तो सर्वोपरि कठिन है। इस तरह इस जीवको सता समनस्कता मनुष्यता आता सद्गोत्र सद्गात्र विभूति वातता आरोग्य सद्बुद्धि और समीर्चान धर्म इन दश चीजोंका प्राप्त होना उत्तरोतर दुर्लभ है।
जो कि सबसे अधिक दुर्लभ है उस धर्मका आचरण करनेमें नित्य ही उद्योग करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं:
NAVR-1752
ध्यायय
स ना स कुल्यः स प्राज्ञः स बलश्रीसहायवान् ।
स सुखी चेह चामुत्र यो नित्यं धर्भमाचरेत् ॥ ८७ ॥ जो जीव नित्य ही धर्मका आचरण किया करता है वह परमवमें पुरुष हुआ करता है और उत्तम कुलको प्राप्त करता है । इसी तरह वह अतिशायत बुद्धि तथा बल और लक्ष्मी एवं अपने कार्यों में अनेक प्र• कारके सहायकोंको प्राप्त करता तथा इस लोक और परलोक में सुखी होता है । इसके विरुद्ध जो जीव धर्मका आचरण नहीं करता या अधर्मका सेवन करता है वह मर कर स्त्री या नपुंसक होता तथा बुद्धिशून्य मुर्ख नि