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बनगार
सज्ज्ञानं कृतकारितानुमतिभिर्योगैरवद्योज्झनम् । तत्पूर्व व्यवहारतः सुचरितं तान्येव रत्नत्रयं,
तस्याविर्भवनार्थमेव च भवेदिच्छानिरोधस्तपः ॥ ९३ ॥ जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका अथवा पुण्य और पापके साथ नव पदार्थोंका यथावत् रूपसे यद्वा इनके याथात्म्य-जिसका जैसा स्वरूप है उसके वैसे ही-स्वरूपका श्रद्धान करना इसको व्यवहारसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। और उनके जान लेनको सम्यग्ज्ञान कहते हैं । इसी तरह मन वचन और कायके द्वारा किये गये कृत कारित एवं अनुमोदनके द्वारा अवद्य-हिंसा झूठ चोरी कुशील व परिग्रह इन पांच पापोंके सम्यग्ज्ञानपूर्वक छोडदेनेको व्यवहारसे सम्यक्चारित्र कहते हैं । मनसे अवद्य कर्मका छोडना-कृत, दूसरेसे छुडाना-कारित, और उसको अच्छा मानना अनुमोदन कहाता है। इसी तरह वचन व कायके द्वारा भी तीन तीन भंग होते हैं। मिला कर नव भंगोंसे अवद्यकर्मका त्याग किया जाता है। किंतु यह त्याग सम्यग्ज्ञानपूर्वक होना चाहिये। तभी उसको सम्यकचारित्र कहते हैं।
अध्याय
___ इन तीनो ही को-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रको रत्नत्रय कहते हैं। इस रत्नत्रयको प्रकट करनेकेलिये ही तप किया जाता है । इच्छा-इन्द्रिय और अनिन्द्रियके द्वारा प्रवृत्त होनेवाली विषयाभिलाषाके निरोध-संयत करनेको तप कहते हैं । यद्यपि इसका चारित्रमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। फिर भी चार आराधनाओंमें इसका पृथक् ही उल्लेख पाया जाता है । अतएव यहांपर भी उसको रत्नत्रयसे भिन्न रूपमें ही दिखाया है।
जिस प्रकार श्रद्धा ज्ञान और चारित्र इन तीनोंके विषय होनेपर ही रसायन औषधसे अभीष्ट फल सिद्ध हो सकता है; अन्यथा नहीं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिकमेंसे भी एक या दोके नहीं, किंतु तीनों ही के-तीनोंके समु