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अनगार
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अध्याय
कृतपरपुरभ्रंशं क्लृप्तप्रभाम्बुदयं यया
सृजति नियतिः फेलाभोक्त्री कृतत्रिजगत्पतिः ॥ ६८ ॥
हे मोक्षकी इच्छा रखनेवाले भव्यो ! परमपुरुष, परमात्मा की आद्य प्रधानभूत शक्ति सम्यग्दantarvधन करो । जो कि शिवरमणीके साची - तिर्यक् ईक्षा -- कटाक्षको विस्तृत करती हुई मनुष्यपर अपनी प्रपन्नता प्रगट करती है । एवं जिसके प्रसादसे अतिशयित प्रभावको प्राप्त हुई नियति पर -- मिथ्यात्व अथवा वैरिओंके नगरका अंश - विनाश करती हुई और तीनो लोकों के स्वामियोंको उच्छिष्टभोजी बनाती हुई अभ्युदयको निष्पन्न करती है ।
भावार्थ - जिस प्रकार सांसारिक मनुष्य परमपुरुष - महादेवकी आद्य शक्ति पार्वतीको मानते हैं और कहते हैं कि उसीके प्रसादसे प्रभावयुक्त संचितपुण्य वैरिओंके नगरका नाश करता है । उसी प्रकार वस्तुतः ऐसा समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन परम आत्माओंकी प्रधान शक्ति है । उसके प्रसाद के पुण्यमें वह अतिशयित प्रभाव • उत्पन्न होता है कि जिसके वंश होकर वह पुण्य मिथ्यात्वके द्वारा सम्पन्न हुए एकेन्द्रियादिकों के शरीररूपी नगको भस्मसात् करता हुआ अभ्युदयोंको उत्पन्न करता है। क्योंकि सम्यक्त्वका आराधन करनेवाला जीव यदि उसने सम्यक्त्व ग्रहणके पूर्व आयुकर्मका बंध न किया हो तो नरकादिक दुर्गतियोंको प्राप्त नहीं होता । और यदि उसने वैसी आयुका बंध करलिया हो तो द्वितीयादि नरक प्रभृति अवस्थाओंको प्राप्त नहीं होता । जैसा कि आग - ममें भी कहा है:
१-सम्यग्दर्शनके पक्षमें निर्मलता - शंकादिक मलरूपी कलंककी विकलता और दूसरे पक्षमें परम पद देनेके सम्मुख परिणाम । २- भाग्य । ३ – दूसरे पक्षमें ।
Rambh
धर्म
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