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अनगार
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भावार्थ-समस्त संसारी जीव और उनमें मैं भी अनादि कालसे इस संसारमें मिथ्यादृष्टि होकर-मिध्यात्वके प्रतापसे ही जन्म मरण धारण करते रहे हैं और दुःख भोगते रहे हैं। मिथ्यादृष्टि उसको कहते हैं जो कि किसीके उपदेशसे या विना उपदेशके ही पदार्थक विपरीत स्वरूपका तो श्रद्धान करता; किंतु उनके समीचीन खरूपका, जो कि आगमोक्त है, श्रद्धान नहीं करता है । जैसा कि आगममें भी कहा है
मिच्छाइद्री जीवो उवइटुं पवयणं ण सद्दहदि ।
सहहदि असन्माचं उवहट्ट अणुवटुं वा ।। गिध्यादृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता किंतु उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव-अतवा प्रदान करता है।
जब कि मिथ्यात्वके निमित्तसे संसारमें भ्रमण करना पडता है तप मोक्षकेलिये इसके विरुव तत्त्वश्रद्धान ही अन्तःकरणमें धारण करना उचित है । तत्त्वश्रद्धाका आकार ऊपर बता चुके हैं।
संसारके बढानेवाले भावोंको ग्रंथ कहते हैं। अत एव मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र ये ग्रंथ हैं। ये तीनो ही हेय हैं इसलिये इनकी हेयताका और इसके विरुद्ध रत्नत्रय जो कि समस्त जगतमें उत्कृष्ट
और आगमके सम्पूर्ण कथनका सार है तथा अत्यंत निर्मल रूपको धारण कर जीवन्मुक्ति वा परममुक्तिकी प्राप्तिका उपाय होजाता है, उपादेय है । इसलिये उसकी उपादेयताका श्रद्धान ही तत्त्वश्रद्धान है। ऐसा ही आगममें भी कहा है, यथाः
णिग्गंथं पावयणं इणमेव अणुत्तरं सुपरिसुद्धं । ..
इणमेव मोक्खमग्गोत्ति मदी कायब्बिया तदा ।। नैन्थ्य ही उपादेय वस्तु है; क्योंकि यही लोकोत्तर अत्यंत विशुद्ध और मोक्षका मार्ग है । इसलिये
अध्याय
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