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रखते हैं; किंतु दोष-वात पित्त कफ धातु-रस रूधिर मांस मेदा अस्थि मजा और शुक्र, मल-नाक घृक पसीना आदिकी खानि और अपाय-दुःखोंके मूल कारण शरीरमें रहते हैं वे कभी भी कर्ममलहित आत्मामें ग्लानि नहीं करते । यही कारण है कि वे आत्मसंपीत्तको प्राप्त करलेते हैं।
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बनगार
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___ भावार्थ-स्वभावतः अशुचि शरीरमें रहते हुए भी जिनका अभीष्ट, अशरीरावस्थाकी महिमा प्राप्त करना है, वे महापुरुष शरीरके संबंधसे आत्मामें क्यों कर ग्लानि कर सकते हैं ? यही कारण है कि सत्पुरुष इस निर्विचिकित्साके अभीष्टसिद्धि और आत्मसीवत्तिके माहात्म्यको प्राप्त करलेते हैं। जो महात्मा हैं उनके जुगुप्साका निमित्त मिलनेपर भी जुगुप्सा नहीं होती; यह बात दिखाते हैं :
किंचित्कारणमाप्य लिङ्गमुदयन्निदमासेदुषो, धर्माय स्थितिमात्रविध्यनुगमेप्युच्चैरवद्याद्भिया । स्नानादिप्रतिकर्मदुरमनसः प्रव्यक्तकुत्स्याकृति,
कायं वीक्ष्य निमज्जतो मुदि जिनं स्मर्तुः क शूकोद्गमः ॥ ८१ ॥ इष्टवियोग वज्रपात मेघदर्शन आदि विविध कारणोंमेंसे किसी भी कारणको पाकर विरक्त हो आचेलक्य और केशलोचसे व्यक्त होनेवाले उस निग्रंथ लिङ्गको, जिसमें कि वैराग्य बढता चला जाता है, धारण करने वाले तपस्वी धर्मकेलिये शरीरकी स्थितिमात्र प्रयोजन रखकर आहारादि विधिका आचरण करते हैं। क्योंकि आहारके विना शरीर स्थिर नहीं रह सकता। और उसकी स्थिरताके विना धर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती। और तपस्वी धर्मको सिद्ध करना चाहते हैं । अत एव चाकचिक्यादिकेलिये नहीं, किंतु शरीरकी स्थितिमात्रकेलियेजिससे कि शरीर टिका रहे उस तरहसे, आहारमें प्रवृत्ति करते हैं। और पापसे भयभीत होकर स्नान अभ्यङ्ग प्रभृति प्रसाधनोंसे वे अपनी मनोवृत्तिको सर्वथा और अतिशयित रूपसे अत्यंत दर रखते हैं । इस तरहके
अध्याय