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हैं । अत एव इन दोनोंमें-द्रव्य और भावमें कौनसी चीजसे मुझे विचिकित्सा-जुगुप्सा करनी चाहिये? कोई भी चीज तो मेरे लिये जुगुप्स्य नहीं है । ये अशुद्ध द्रव्य और भाव यदि मेरे होते तो कदाचित् उनसे ग्लानि करना भी उवित होता। पर ये मेरे नहीं हैं। अत एव इनसे ग्लानि करना भी ठीक नहीं है।
इसी प्रकार किसी मुनिके रोगका इलाज करते समय-यदि किसी मुनिको वमन आदि हो जाय तो उसका इलाज या सफाई आदि करनेमें कदाचित् जुगुप्सा उत्पन्न हो जानेपर सम्यग्दृष्टिको चाहिये कि वह निजुगुप्सा अंगमें प्रसिद्ध हुए उद्दायन राजाका स्मरण करे ।
ऐसी भावना करनेवाला और स्मरण करनेवाला ही सम्यग्दृष्टि शुद्ध चिद्रूपको प्राप्त कर सकता है। अन्यदृष्टिप्रशंसा नामके सम्यक्त्वके अतीचारको छोडनेका उपदेश देते हैं:
एकान्तध्वान्तविध्वस्तवस्तुयाथात्म्यसंविदाम् ।
न कुर्यात्परदृष्टीनां प्रशंसां दृक्कलङ्किनीम् ॥ ८३ ॥ " वस्तु सर्वथा क्षणिक है " अथवा " सर्वथा नित्य है" इस तरहके एकांतवाद अनेक प्रकारके हैं; जैसा कि पहले दिग्दर्शन कराया जाचुका है। इस एकांतके अभिनिवेश-आग्रहरूपी अन्धकारसे जिन लोगोंने वस्तुके याथात्म्य - यथार्थ स्वरूपके ज्ञान व श्रद्धानको आच्छादित कर रक्खा है या ढकदिया है ऐसे मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा न करनी चाहिये । क्योंकि ऐसा करनेसे उनके जैसे मिथ्या श्रद्धानकी तरफ आत्मा झुकता है; अथवा सम्यक्त्वमें निर्मलता होना रुक जाता है । अतं एव सम्यग्दर्शनमें कलंक लगता है।
अनायतनसेवा नामके अतीचारका भी त्याग करनेकेलिये उपदेश देते हैं:
TENERAR VAVERTERSNE KE REME SEEKENDRA NANELVETASHAMAREYANAKAMANARAYAN
अध्याय