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अनगार
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एकान्तसे धर्मका ही साधन करनेवाले तपस्वियोंके शरीरको, जिसकी आकृतिको देखते ही अत्यंत ग्लानि उत्पन्न होजाय, देख करके भी जो सम्यग्दृष्टि जिन भगवान् अर्हद्भट्टारकका स्मरण कर आनन्दमें निमग्न होजाता है; क्या उसके कभी भी जुगुप्साकी उभृति हो सकती है ?
भावार्थ-जो आत्मा और उसके धर्मको देखनेवाला है वह शरीरको अशुचि देखकर उससे कभी भी ग्लानि नहीं कर सकता।
विचिकित्साके त्याग करनेमें प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं: --
द्रव्यं विडादि करणैर्न मयति पक्तिं, भावः क्षुदादिरपि वैकृत एव मेऽयम् । तत्कि मयात्र विचिकित्स्यामिति स्वमृच्छ,
दुदायनं मुनिरुगुद्धरणे स्मरेच्च ॥ ८२ ॥ . यदि किसी कारणवश कदाचित् विचिकित्साका उद्गम भी होजाय तो सम्यग्दृष्टिको उचित है कि वह अपनी आत्माको इस प्रकार समझावे-ऐसा विचार करे कि -वमन मूत्र पुरीष आदि जो द्रव्य हैं उनका मुझसे स्पर्श नहीं होरहा है, जो कि शुद्ध चिद्रूप-ज्ञानदर्शनात्मक हूं; किंतु इन्द्रियों व शरीरादिकके साथ उनका स्पर्श हो रहा है, जो कि जडरूप हैं। क्योंकि ये द्रव्य मूर्त हैं और इन्द्रियां व शरीर भी मूर्त हैं; किंतु मैं अमूर्त हूं । अत एव मेरे साथ नहीं किंतु इन्द्रियादिकके साथ ही इन पुरीषादिका सम्बन्ध है। क्योंकि मूर्त पदार्थका मूर्त पदार्थके साथ ही सम्बन्ध हो सकता है । इसी प्रकार मेरे-मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले जो ये क्षुधा तृषा आदिक भाव हैं वे भी ऐसे समझे जाते हैं कि वे मेरे हैं । किंतु वास्तवमें वे मेरे नहीं, वैकृत ही हैं-कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए विकारजनित ही
अ. ध. २७
अध्याय
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