________________
-
-
कोपादितो जुगुप्सा धर्माङ्गे याऽशुचौ स्वतोऽङ्गादौ ।
विचिकित्सा रत्नत्रयमाहात्म्यारुचितया दृशि मलः सा ॥ ७९ ॥ शरीरादिक द्रव्य और क्षुधा तृषा आदिक भाव स्वभावसे ही अपवित्र और असुन्दर हैं। किंतु वे धर्मके भी अङ्ग-साधन हैं। क्योंकि शरीरादिके द्वारा ही अनशनादिक कायक्लेशान्त बाह्य तप और प्रायश्चित्तसे लेकर ध्यानतक अन्तरङ्ग तप करके परम निःश्रेयसकी सिद्धि हो सकती है । इस तरह के धर्मके साधनभूत द्रव्य और भावमें क्रोधादिक कपायके वश होकर रत्नत्रयके माहात्म्यमें -सम्यग्दर्शनादिकके निमित्तसे उत्पन्न हुए प्रभावमें अरुचि रखकर ग्लानि करना इसको विचिकित्सा कहते हैं । यही विचिकित्सा सम्यग्दर्शनका-मल अतीचार है।
भावार्थ - एक मुनिका शरीर स्वभावसे ही अपवित्र या असुन्दर है किन्तु वह रत्नत्रयके माहात्म्यसे भूषित है। उसमें कषायवश अरुचि धारण कर ग्लानि करना रत्नत्रयसे ही ग्लानि करना है । अत एव यह सम्यग्दर्शनका विचिकित्सा नामका अतीचार है। क्योंकि इससे सम्यग्दर्शनका जो स्वरूप बताया है कि देव गुरु शास्त्रमें रुचि रखना, उसमें हानि पहुंचती है। महापुरुषोंको अपने शरीरमें विचिकित्साराहित्यके कारण जो माहात्म्य प्राप्त होता है उसको बताते हैं:
यदोषधातुमलमूलमपायमूलमङ्गं निरङ्गमहिमस्पृहया वसन्तः । सन्तो न जातु विचिकित्सितमारभन्ते,
सविद्रते हृतमले तदिमे खलु स्वे ॥ ८ ॥ जो सत्पुरुष शरीररहित मुक्तात्माओंकी महिमा-अनन्तज्ञानादि-गुणसम्पत्तिमें स्पृहा-अभिलाषा
अध्याव
Kaar Kahaasakasaisaisansamalassionasias
m