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बनगार
भी अपनी अपनी अंगनाओंके साथ रमणकी इच्छाको छोडदेते हैं। क्योंकि यह समझकर कि जो अविद्यासे दूर रहनेवाला है वही संसारमें धन्य है । और जिस प्रशम सुखका तपस्वी अनुभव करते हैं उसी आत्मिक सुखका अनुभव करनेकेलिये देव और इन्द्रादिक भी स्वर्गीय विभूतियोंके सुखसे विरक्त होकर यह इच्छा किया करते हैं कि " मोक्षलक्ष्मीका सुख जिसके द्वारा प्राप्त हो सकता है उस तपस्याका आचरण करनेकेलिये मैं इस देव इन्द्रपर्यायको छोडकर कब मनुष्य पर्यायमें अवतीर्ण होऊं।"
सम्यक्त्वादिकके निमित्तसे जिनके पुण्यकर्मका संचय हो ही जाता है ऐसे जीवोंको संसारसुखकी आकाङ्क्षा करना व्यर्थ है । क्योंकि उस पुण्य के निमित्तसे उनको उस सुखकी प्राप्ति स्वयं होजाती है। फिर उसके लिये आकाङ्क्षा करनेसे क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं। यही बात दिखाते हैं:- .
तत्त्वश्रद्धानबोधोपहितयमतपःपात्रदानादिपुण्यं, यद्गीर्वाणाग्रणीभिः प्रगुणयति गुणैरहणामहणीयैः । तत्प्राध्वंकृत्य बुाई विधुरयति मुधा कापि संसारसारे,
तत्र खैरं हि तत् तामनुचरति पुनर्जन्मनेऽजन्मने वा ॥ ७७ ॥ उपर्युक्त जीवादिक सात तत्त्वोंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे युक्त संयम तप पात्रदान और परोपकार प्रभृति साधनोंके द्वारा उत्पन्न हुआ पुण्य इतना महान् होता है कि वह देवों इन्द्रों तथा अहमिंद्रोंके द्वारा भी पूजनीय तीर्थकरत्वादि गुणोंसे अपने स्वामीकी पूजा करवादेता है। क्योंकि इस पुण्यके प्रसादसे लोकोत्तर फल देनेवाले तीर्थकरत्वादिक ऐसे ऐसे गुण प्राप्त होते हैं कि जिनके निमित्तसे इंद्रादिक भी आकर उस मनुष्यकी पूजा किया करते हैं । अत एव हे भव्य ! यह पुण्यकर्म संसारके सारभूत विषयोंमें और पुनर्भव तथा अपुनर्भवकेलिये जैसी कि तेरी कल्पना-इच्छा है वैसा स्वयं ही-विना तेरी आकाङ्क्षाके ही तेरी इच्छानुसार ही अनुगमन करता है । -इस महान् पुण्यके निमित्तसे विना किसी तरहकी इच्छा किये ही-स्वयं ही संसारके अभ्युदय और उत्तम
अध्याय