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अनगार
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अध्याय
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और इस तरहके भाव होते हैं कि “ सम्यग्दर्शन और तपके माहात्म्यसे मेरे संसार के सुख अहमिन्द्रादिक पद अथवा अनेक प्रकारके अभ्युदयों और विभूतियोंकी उद्भूति किस प्रकारसे हो " । ये भाव ही आकांक्षा हैं, और इन्ही से अंशतः सम्यक्त्वका खण्डन होता है ।
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इस प्रकारकी आकाङ्क्षा करनेवाले जीवोंके जो सम्यक्त्वरूपी फलकी हानि होती है उसको बताते हैं । :---
यल्लीलाचललोचनाञ्चलरसं पातुं पुनर्लालसाः,
स्वश्रीणां बहु रामणीयकमदं मृहन्त्यपीन्द्रादयः । तां मुक्तिश्रियमुत्कयद्विदधते सम्यक्त्वरत्नं भव, -
. श्रीदामीरतिमूल्यमाकुलाधियो धन्यो ह्यविद्यातिगः ॥ ७६ ॥
अनित्य अशुचि दुःख और अनात्मरूप सांसारिक विषयों में विपरीत भान - नित्य शुचि सुख और आत्मरूपता के प्रत्ययको अविद्या कहते हैं। इस अविद्यासे जो सर्वथा दूर हैं वे ही पुरुष धन्य हैं। अत एव जिसकी लीला - यदृच्छासे चञ्चल हुए नेत्राञ्चल के रसका पान करनेके लिये लालसा - अत्यंत लम्पटता रखनेवाले इन्द्रादिक भी अपनी अपनी लक्ष्मियों देवियों के रतिकारिता के संभोगप्रवृत्तिके विपुल मदको चूर्णित करदेते हैं उस मुक्तिलक्ष्मीको उत्कण्ठित करनेवाले सम्यक्त्व - रत्नको वे पुरुष, जिनकी कि अन्तःकरणप्रवृत्ति विषय सेवन करने के लिये उत्सुक रहा करती है, संसारलक्ष्मीरूपी दासीकी रतिका मूल्य बनादेते हैं ।
भावार्थ - जिस प्रकार संसारमें कामवासनासे संतप्त हुए पुरुष किसी दासी आदिको उसके साथ कीगई रतिका मूल्य दिया करते हैं, उसी प्रकार संसारकी भोगोपभोगसामग्री से रति- प्रेम करनेवाले लोक उसको उस प्रेमके बदले में अपने उस सम्यक्त्वरत्नको दे डालते हैं, जो कि उस मुक्तिलक्ष्मीको उत्कण्ठित करनेवाला है और जिसके रसका पान करनेकेलिये अत्यंत उत्कण्ठित हुए स्वर्गके देव और इन्द्रादिक
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