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वनमार
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अध्याय
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उसीका और वैसा ही श्रद्धान करना चाहिये । की प्राप्ति और विनयके द्वारा करनी चाहिये ।
इसीको तत्त्वश्रद्धा कहते हैं । इसकी पुष्टि दोषोंके त्याग गुणों अपनी कार्यकारिताकी हानि अथवा स्वरूपके कम होनेको दोष और इससे विपरीत भावको गुण कहते हैं । विनय शब्दका अर्थ नम्रता है । इन्हीके द्वारा पुष्ट किये जानेपर सम्यग्दर्शनका आराधन हो सकता है ।
पहले सम्यक्त्वके विषयमें उद्योतादिकका वर्णन कर चुके हैं। उनकी आराधना करने की इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओं को उनके अतीचारोंका त्याग करनेका उपदेश देते हैं
दुःखप्रायभवोपायच्छेदोद्युक्ता कृष्यते ।
ग्लेश्यते वा येनासौ त्याज्यः शङ्कादिरत्ययः ॥ ७० ॥
जिसमें प्रायः दुःख ही पाये जाते हैं ऐसे संसारके कारणभूत कर्मबन्ध अथवा मिथ्यात्वादिक भावोंका उच्छेद - विनाश करनेमें उद्यक्त सम्यग्दर्शनकी कार्यकारिणी शक्तिका जो अपकर्ष करते हैं और स्वरूपको कम करते हैं उन शंकादिक अतीचारोंको अवश्य ही छोडना चाहिये ।
अन्तवृत्ति या बहिर्वृचिके द्वारा इस तरहसे अंशतः सम्यग्दर्शनके खण्डित होनेको, कि जिसमें उसका समूल नाश न हो, अतीचार कहते हैं। इस तरहके अतीचार अनेक हैं। उनसे युक्त सम्यग्दर्शन कार्यकारी नहीं हो सकता । निरतीचार ही सम्यग्दर्शन दुःखप्राय संसार और उसके कारणों का उच्छेद कर सकता है। जैसा कि आगम में भी कहा है, यथा:
नाङ्गहीनमलं छेत्तं दर्शनं जन्मसंततिम् । हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ||
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