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इस शंकाके निराकरण करनेकी प्रेरणा करते हैं:
प्रोक्तं जिनैर्न परथेत्युपयन्निदं स्यात, किं वान्यदित्यमथवाऽपरचेति शङ्काम् । खस्योपदेष्टुरुत कुण्ठतयानुषक्तां, सधुक्कितीर्षमधिरादवगाह्य मृग्यात ॥ ७२॥
. जो जिनेन्द्रदेव-वीतराग सर्वज्ञदेवने कहा है कि "समस्त वस्तु अनेकान्तात्मक हैं, "सो सत्य है। " उसका यह मत बिध्या नहीं होसकता ।" इस प्रकारसे श्रद्धान करनेवाले सम्यग्दृष्टि मुसा मयको शीघ्र ही समुचितीर्थ--समीचीन युक्रियोंसे सिद्ध आगममें कुशल उपाध्यायके अथवा उस समीबीन बुकिसिद्ध आगमके हृदयमें प्रवेशकर अपनी मन्द बुद्धिके कारण अथवा उपदेष्टा गुरुओंकी कृष्ठताके कारण हृदयमें उत्पन्न हुई इस तरहकी अंकाका मार्जन- शोधन करडालना चाहिये कि 'जो जिनेन्द्र देवने कहा है कि धर्मादिक द्रव्य इतने हैं, सो वह ठीक है, अथवा दूसरे वैशेषिकोंके कहे हुए द्रव्यादिक, यद्वा सांख्यके कहे हुए प्रधान पुरुषादिक अथवा बोड़ोंके कहे हुए दुश्वसमुदायादिक स्वरूप ठीक हैं।' इसी तरह ऐसी शंकाका भी मार्जन करना चाहिये कि " जिनेन्द्र देवने जो तत्त्वोंका स्वरूप कहा है कि वह सामान्यविशेषात्मक है सो वह ठीक है अथवा, कोई दूसरा ही मैदैकान्तादिक ठीक है?
अध्याय
ऊपर उपाध्याय और आगमको तार्थ बताया है सो ठीक ही है। क्योंकि तीर्थ शब्दका अर्थ नदी आ. दिका घाट होता है । जिस प्रकार सद्याक्तितीर्थ--जिसकी भले प्रकार योजना कीगई है ऐसे घाटको पाकर सासारिक मनुष्य प्रमादसे लगे हुए मल या कीचड आदिको धोकर साफ करदेते हैं उसी प्रकार जैनागम और