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अनगार
कि जिनका फल दुःखके कारणभृत इन्द्रियोंके विषय है। इनमेंसे जो कर्म जिस तरहक है वह उसी तरहका फल उत्पन्न करता है । जिस तरहसे कि चूहेके विषसे शरीरमें चूहे सरीखे | ही जीव पडजात हैं। इसी तरहसे पुण्यकर्मके उदयसे सुखरूप और पाप कर्मके उदयसे दुःखरूप फल उत्पन्न होते हैं। ये फल मूर्त हैं और मूते पदार्थके संबंधसे ही जीव उनको भोगता है। इससे अनुभवमें आता है कि वह कर्म भी मूर्तिमान ही होना चाहिये । क्योंकि यह नियम है कि जिसका अनुभव मूर्त पदार्थके संबंधसे होगा वह । स्वयं भी अवश्य मूर्त ही होगा। अपने प्राप्त शरीरकी बराबर जीवका परिणाम होता है। इस बातको सिद्ध करते हैं। -
स्वाङ्ग एव स्वसंवित्त्या स्वात्मा ज्ञानसुखादिमान् ।
यतः संवेद्यते सर्वैः स्वदेहप्रमितिस्ततः ॥ ३१ ॥ : ज्ञान दर्शन सुख प्रभृति गुणों व पर्यायोंसे युक्त अपनी आत्माका अपने अनुभवसे अपने शरीरके भीतर ही सब जीवोंको संवेदन होता है । इससे मालूम होता है कि जीवका परिमाण अपने शरीरके बराबर ही है।
भावार्थ-निज आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा बाहर नहीं किंतु अपने शरीरमें ही अनुभव होता है। और शरीरमें कहीं कहीं नहीं किंतु उसके सभी प्रदेशोंमें होता है । इससे मालुम पडता है कि जीवका परिमाण अपने गृहीत शरीरके बराबर ही रहता है; न छोटा न बडा। क्योंकि जिस प्रकार दीपक जिस कमरे आदिकमें और उसके जितने प्रदेशोंमें प्रकाश करता हुआ उपलब्ध होता है वह उसी जगह और उतने ही प्रदेशोंमें है। ऐसा माना जाता है । उस पदार्थके अस्तित्वकी उपलब्धि उसके असाधारण गुणोंसे होती है। जिस तरह दीपके अस्तित्वका प्रत्यय उसके भासुरता आदि गुणोंसे होता है उसी प्रकार जीवके अस्तित्वका प्रत्यय
अध्याय