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, बनगार
खकारितेर्हच्चैत्यादौ देवोयं मेऽन्यकारिते ।
अन्यस्यासाविति भ्राम्यन्मोहाच्छारोपि चेष्टते ॥ ५८ ॥ मिथ्यादृष्टिकी तो बात ही क्या, जो सम्यग्दृष्टि-श्रद्धावान् हैं वे भी मोह-सम्यक्त्व प्रकृति-मिथ्यात्वके उदयसे भ्रम-संशयको प्राप्त होकर अपने बनाये हुए जिनबिम्ब जिनमन्दिर या किसी अन्य सम्यक्त्वक्रियाके साधनमें "ये मेरे देव हैं," या " यह मेरा मन्दिर है," इस तरहका और दूसरेके बनाये हुए जिनबिम्ब या जिनमन्दिरादिकमें “ ये उसके देव हैं," या " यह उसका मन्दिर है," ऐसा व्यवहार करने लगते हैं ।
मलिनताका स्वरूप बताते हैं:तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः । मलिनं मलसङ्गेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥ ५९ ॥
POPURICA
जिस प्रकार सुवर्ण पहले अपने कारणोंसे चाहे शुद्ध ही उत्पन्न हुआ हो किंतु वह माहात्म्यरहित होनेपर चांदी वगैरह परपदार्थरूपी मलके संसर्गसे मालन होजाता है। इसी प्रकार क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चाहे पहले शुद्ध ही क्यों न उत्पन्न हुआ हो, किंतु सम्यक्त्व प्रकृति-मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न होनेवाले शङ्कादिक दोषरूपी मलके संसर्गसे मलिन होजाता है; क्योंकि कर्मक्षपणके द्वारा प्राप्त होनेवाले आतिशयसे वह सर्वथा रहित होता है।
चलपनेको बताते हैंलसत्कल्लोलमालासु जलमेकमिव स्थितम् ।
अध्याय