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अनगार
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अध्याय
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हैं। पदार्थोंको संक्षेपसे ही जानकर जो तत्त्वोंमें रुचि होती है उसको संक्षेपसम्यग्दर्शन कहते । मुनियोंकी चारित्रविधिका वर्णन करनेवाले आचारसूत्रको सुनकर जो श्रद्धा उत्पन्न हो उसको सूत्रसम्यग्दर्शन कहते हैं । जो समस्त द्वादशाङ्गको सुनकर रुचि उत्पन्न होती है उसको विस्तार सम्यग्दर्शन कहते हैं । अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य इस तरह समस्त श्रुतका पूर्ण अनुभव होजानेपर - श्रुतकेवल अवस्था प्राप्त होजानेपर जो तत्त्वोंमें श्रद्धा उत्पन्न होती है उसको अवगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं। साक्षात् केवलज्ञानके होजानेपर जो पदार्थोंमें अत्यंत दृढ श्रद्धा उत्पन्न होती है उसको परमावगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
आज्ञासम्यक्त्वको प्राप्त करनेका उपाय बताते हैं: -- • देवोर्हन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रदः ।
धर्मस्तदुक्त एवेति निर्बन्धः साधयेद् दृशम् ॥ ६३ ॥
क्लेश – रागद्वेष और कर्मोदय तथा उससे होनेवाले क्षुधातृषादिक दोषों एवं सांसारिक विषयवासनाओं और अज्ञानादिकसे जो सर्वथा रहित है उस पुरुषविशेषको ही देव कहते हैं । ऐसा देव अर्हन्त ही हो सकता है । अतएव उसीके वचन सत्य हो सकते हैं, क्योंकि वह सर्वज्ञ एवं वीतराग है । और इसीलिये धर्म भी उस अर्हता ही कहा हुआ सत्य तथा अभ्युदय और निःश्रेयस - मोक्षका साधक हो सकता है। इस प्रकारका निर्बन्ध - अभिनिवेश ही सम्यग्दर्शन - आज्ञासम्यक्त्वको सिद्ध कर सकता है ।
अब पांच पद्योंमें सम्यग्दर्शनके माहात्म्यका वर्णन करते हैं । जिसमें से पहले यहां पर जिससे विनेयों - शिष्यों व श्रोताओंको सुखपूर्वक उसकी स्मृति हो सके इसलिये सम्यग्दर्शनकी सामग्री और स्वरूप बताकर संक्षेपसे उसकी अनन्यसंभवी महिमाको प्रकट करते हैं:--
प्राच्येनाथ तदातनेन गुरुवाग्बोधेन कालारुण, -
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