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घमे.
वदेक सम्यक्त्वके अन्तरङ्ग कारणको बताते हैं:पाकाद्देशनसम्यक्त्वप्रकृतेरुदयक्षये ।
शमे च वेदकं षण्णामगाढं मलिनं चलम् ॥ ५६ ॥ सम्यक्त्वकी घातक उक्त सात प्रकृतियों से सम्यक्त्वको छोडकर बाकी छह प्रकृतियोंमेंसे उदयमें आनेवालोंकी निवृत्ति होजानेपर---विना फल दियं ही निर्जरा होजानेपर और उदयमें न आनेवालियोंका उपशम होजानेपर तथा अंशतः सम्यक्त्वका घात करनेवाली उक्त सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर जो श्रद्धानरूप प रिणाम होते हैं उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । अत एव यह क्षयोपशम ही वेदक सम्यक्त्वका अन्तरंग कारण है। यह सम्यक्त्व अगाढ मालन और चल होता है ।
वेदककी अगाढताको दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:-- वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता । स्थान एव स्थिते कम्प्रमगाढं वेदकं यथा ॥ ५७ ॥
जिस प्रकार वृद्ध पुरुषकी यष्टि-लकडी हातमें ही बनी रहती है-उससे पृथक नहीं होती और अपने स्थानको नहीं छोडती; फिर भी कुछ कंपती रहती है-निश्चल नहीं रहती। उसी प्रकार जो क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन अपने विषय-देव गुरू शास्त्र और तत्त्वादिकमें ही स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है-स्थिर नहीं रहता उसको अगाढ वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
अध्याय
इस अगाढताका उल्लेख-आकार बताते हैं: