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भनमार
- औपशमिक सम्यग्दर्शनके अन्तरङ्ग कारणको बताते हैं: -
शमान्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमिश्रानन्तानुबन्धिनाम् ।
शुद्धेम्भसीव पङ्कस्य पुंस्यौपशमिकं भवेत् ॥ ५४ ॥ जिस प्रकार निर्मलीके फल आदिको डाल देनेसे कीचडके नीचे बैठ जानेपर जलमें शुद्धि आजाती है । और वह स्वच्छ होजाता है उसी प्रकार मिथ्याच सम्यक्त्व और मिश्र एवं अनन्तानुबंधी कषायोंके-क्रोध मान माया लोभके शांत होनेसे जीवकी कष्मलता दूर होजाती है-दब जाती है और वह शुद्ध होजाता है। ऐसे जीवके इस उ. पशमके निमिचसे जो तत्त्वश्रद्धानरूप परिणाम होते हैं उसको औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं।
जिसके उदयसे जीव सर्वज्ञोक्त मार्गके श्रद्धानसे विमुख होकर मिथ्यादृष्टि होजाता है उसको मिथ्यात्व कहते हैं । इसी मिथ्यात्त्वको, जब कि वह शुभ परिणामोंके निमित्तसे अपने अनुभागके क्षीण होजानेपर औदासीन्य रूपमें स्थित होजाता है, सम्यक्त्व कहते हैं। जिसका कि उदय होनेसे सर्वज्ञोक्त मार्गका श्रद्धान करलेनेपर जीव सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। क्योंकि यह प्रकृति सम्यक्त्व की प्रतिबंधक नहीं है। इसी तरह जिस मिथ्यात्वकी अनुभागशक्ति आधी शुद्ध हो चुकी है उसको मिश्र अथवा सम्यमिथ्यात्व कहते हैं। जिस प्रकार भांग वगैरह किसी नसेली चीजको कुछ धोडालनेसे उसका आधा नसा कम होजाता है और उसके पीनेपर कुछ नसा और कुछ होश-सावधानता रहा करती है इसी तरह मिश्र प्रकृतिके उदय होनेपर मिश्र-मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके मिले हुए परिणाम हुआ करते हैं । अनंतानुबंधीका अर्थ पहले लिखा जा चुका है । बस, इन सात प्रकृतियोंका उपशम ही औपशमिक सम्यग्दर्शनका अंतरङ्ग कारण है ।
- थायिक सम्यग्दर्शनका अंतरंग कारण बताते हैं:
अध्याय