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अनगार
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ज्ञे सरागे सरार्ग स्याच्छमादिव्यक्तिलक्षणम् ।
विरागे दर्शनं तत्वात्मशद्धिमानं विरागकम् ॥ ५१ ॥ जिसके साथमें चारित्रमोहका उदय पाया जाता है उसको सराग सम्यक्त्व कहते हैं। अत एव यह सराग तत्त्वज्ञानियोंमें-असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवी जीवतकमें रहता है। इसके उपलक्षण शमादिक हैं, जिनका कि स्वरूप आगे कहेंगे । इस शमादिकके द्वारा ही वह व्यक्त हो सकता है--जाना जा सकता है। दशनमोहनीय कर्मके उपशमादिकके द्वारा उत्पन्न हुई जीवकी विशुद्धिको ही वतिराग सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह वीतराग-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवोंमें ही रहता है। प्रशमादिकको वीतराग सम्यग्दर्शन नहीं कहते; क्योंकि सहकारी चारित्रमोहनीयका अपाय होजानेसे वहांपर प्रशमादिककी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । केवल स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा ही उसका अनुभव होता है ।
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प्रशमादिकका लक्षण बताते हैं:-- प्रशमो रागादीनां विगमोऽनन्तानुबन्धिनां संवगः ।
भवभयमनुकम्पाखिलसत्त्वकृपास्तिक्यमखिलतत्त्वमतिः॥५२॥ अनन्त-संसारका अनुबंधन करनेवाले-बीज और अंकुरकी तरहसे प्रवृत्त करनेवाले रागादिक-क्रोध मान माया लोमरूप कषायों तथा उसके साहचर्यसे मिथ्यात्व तथा सम्यमिथ्यात्वके भी अनुद्रेकको प्रशम कहते हैं। संसारकी भीरुताको संवेग कहते हैं । जिससे कि संसारके बढानेवाले कामोंके करनेकी रुचि उत्पन्न नहीं होती अथवा नष्ट होजाती है। त्रस अथवा स्थावरकी अवस्थामें यद्वा नारकादि गतियोंमें भ्रमण कर दु:खका उपार्जन करनेवाले समस्त जीवोंपर कृपा-दयाभाव होनेको अनुकम्पा कहते हैं। जिससे कि " ये
अध्याय