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अनगार
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। चिसगोंधिगमो वापि तदाप्ता कारणद्वयम् ।
सम्यक्त्वभाक पुमान्यस्मादल्पानल्पप्रयासतः ।। निसर्ग और अधिगम इन दोकी प्राप्तिमें दो कारण हैं। क्योंकि इनके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करने वाले जीवोंमेंसे कोई तो अल्प प्रयासस और कोई अनल्प-महान् परिश्रमसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ करते हैं।
और भी
यथा शूद्रस्य वेदार्थे शाखान्तरसमीक्षणात् ।
स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं तत्त्वाथे कस्यचित्तथा ॥ जिस प्रकार शूद्र वेदके अर्थका साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि उसको उसके पढनेका अधिकार नहीं है। किंतु ग्रंथान्तरोंको पढकर उसके ज्ञानको स्वयं प्राप्त कर सकता है। किसी किसी जीवके तत्वार्थका भी ज्ञान इसी तरहसे होता है। ऐसे जीवोंके गुरूपदशादिके द्वारा साक्षात् तत्त्वबोध नहीं होता किंतु उनके ग्रंथों के अध्ययन आदिके द्वारा स्वयं तत्वबोध और तत्रुचि उत्पन्न हो जाती है।
सम्यक्त्वके भेद बताते हैं - तत्सरागं विरागं च द्विधौपशमिकं तथा ।
क्षायिकं वेदकं त्रेधा दशधाज्ञादिभेदतः॥५०॥ . सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं- सराग और वीतराग । अथवा तीन भेद हैं-औपशमिक क्षायिक वेदक । यद्वा दशभेद है-आज्ञा मार्ग उपदेश आदि । इन दशोंके नाम आगे चलकर लिखेंगे। सराग और वीतराग सम्यक्त्वका आधिकरण लक्षण और उपलक्षण बताते हैं:
अ.घ. २३
अध्याय
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SUPEPARAT