________________
।
बनगार
धर्मः
१७५
करणका नाम अधःप्रवृत्त करण भी है। क्याोंके यहांपर उपरितन समयवर्ती परिणामोंकी समानता अधः-नांचेके -समयमें प्रवृत्त करणोंके साथ पाई जाती है। जहांपर अपूर्व अपूर्व-समय समयमें भिन्न भिन्न किंतु शुद्धतर परिणाम पाये जाय उसको अपूर्वकरण कहते हैं। जहांपर एक समयवर्ती परिणामोंमें निवृत्ति-भिन्नता नहीं पाई जाती उस को अनिवृत्ति करण कहते हैं। सभी करणोंमें नाना जविोंकी अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हुआ करते हैं इनमेंसे अधःप्रवृत्त करणमें स्थितिखण्डन और गुणश्रेणिसंक्रमण नहीं होते। किंतु अनन्तगुणी वृद्धिसे युक्त विशुद्धिके द्वारा अशुभ प्रकृतियोंको अनन्त गुणे अनुभागसे हीन और शुभ प्रकृतियोंको अनन्त गुणे अनुभाग रससे युक्त बांधता है । एवं स्थितिको पल्यके असंख्यातवें भाग कम करदेता है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें स्थितिखण्डनादिक होते हैं। क्रमसे अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागकी अनन्तगुणी हानि और शुभ प्रकृतियोंके अनुभागकी अनन्तगुणी वृद्धि होती है। इनमेंसे अनिवृत्तिकरणके असंख्यात भाग बीत जानेपर उक्त भव्यजीव अन्तर करणको करता है जिससे कि दर्शनमोहनीयका घात कर अंतसमयमें उसके शुद्ध अशुद्ध और मिश्र इस तरह तीन भाग करदेता है। जिनको कि क्रमसे सम्यक्त्व मिथ्यात्व और मिश्र कहते हैं । ये ही दर्शनमोहकी तान प्रकृति हैं। इनका और अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभका उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम होनेपर ही सम्यक्त्वकी उद्भः तता होती है। जैसा कि आगममें भी कहा है, यथाः
प्रशमय्य ततो भव्यः सहानन्तानुबन्धिभिः । ता मोहप्रकृतीस्तिस्रो याति सम्यक्त्वमादिमम् ॥ संवेगप्रशमास्तिक्यदयादिव्यक्तलक्षणम् । तत्सर्वदुःख विध्वसि त्यक्तशङ्कादिदूषणम् ॥
बध्याय
तथा
क्षीणप्रशान्तमिश्रासु मोहप्रकृतिषु क्रमात् । पश्चाद् द्रव्यादिसामग्ऱ्या पुंसां सद्दर्शनं निधा।