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अनगार
धर्म
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KASARAS
गुप्त्यात्मना वात्मगुणेन संवृतिस्तद्योगतद्भावनिराकृतिः स वा ॥१॥ आत्माके जिन सम्यग्दर्शनादिक अथवा गुप्त्यादिक गुणोंसे पूर्वोक्त कर्मोंका आस्रव संवृत होता है-रूकता है उसको संवर कहते हैं । अथवा कर्मयोग्य पुद्गलोंके कमरूप होनेसे रुकनेको भी संवर कहते हैं।
भावार्थ-संवरतत्त्व आस्रवतत्त्वका बिलकुल प्रतिपक्षी है । अत एव जिस प्रकार आत्माके जिन परिणामोंसे कर्म आते उनको भावास्रव और कोंके आनेको द्रव्यास्रव कहते हैं। उसी प्रकार आत्माके जिन भावोंसे कर्मोंका आना रुकता है उनको भावसंवर और कर्मोंके आनेसे रुकनेको द्रव्यसंवर कहते हैं । जिस प्रकार भावास्रवके भेद मिथ्यादर्शनादिक हैं उसी प्रकार भावसंवरके भेद सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान संयम और गुप्ति आदिक हैं । जैसा कि आगममें भी बताया है। यथाः
वदस भिदीगुत्ती ओ धम्माणुपिहापरीसहजओ य ।
चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ।। व्रत समिति गुप्ति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र तथा इनके उत्तर भेद भावसंवरके ही विशेष भेद हैं।
क्रमप्राप्त निर्जरातत्वका स्वरूप और भेद बताते हैं । निर्जीयते कर्म निरस्यते यया पुंसः प्रदेशस्थितमेकदेशतः।
सा निर्जरा पर्यय वृत्तिरंशतस्तत्संक्षयो निर्जरणं मताथ सा॥ ४२ ॥ जीवकी पर्ययवृत्ति-संक्लेशनिवृत्तिरूप परिणामोंको निर्जरा-भावनिर्जरा कहते हैं कि जिसके द्वारा जीवके प्रदेशों-अंशोंमें स्थित कर्म एकदेश रूपसे निर्जीर्ण होजाते हैं-आत्मासे सम्बन्ध छोडकर पृथक् होजाते हैं । अथवा जीवके प्रदेशोंमें स्थित कोंके एक देश रूपसे पृथक् होनेको भी निर्जरा-द्रव्यनिर्जरा कहते हैं।
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बध्याय