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अनगार
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कार्य हुआ करता है। अथवा जिस प्रकार खाये हुए अन्नादिकका स्कंध एक ही है। फिर भी उसमें अनेक विकाररूप परिणत होनेकी सामर्थ्य रहती है और कारणके अनुसार वह वात पित्त कफ खल रस आदि अनेक परिणमनको प्राप्त करलेता है। उसी प्रकार यद्यपि जो कर्मस्कन्ध आता है वह एक ही है। फिर भी कारणभेदके अनुसार वह नारकादि नानारूप परिणमन करलेता है। जिस प्रकार कर्मसामान्यकेलिये यह कहा गया है उसी प्रकार कर्मविशेषकेलिये भी समझना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार आकाशसे वर्षनेवाला जल यद्यपि एक ही रहता है, फिर भी वह पात्रादिक सामग्रीकी विशेषताके अनुसार अनेक रसरूप परिणत हो जाता है। उसी प्रकार एक ही ज्ञानावरणादिक स्कन्ध कषायादि सामग्रीकी तरतमताके अनुसार मत्यावरणादि अनेकरूप परिणत हो जाता है । इसी तरह दूसरे भी विशेष कमाके विषयमें समझना चाहिये ।
इस कर्मके सामान्यसे एक, विशेषतया पुण्यपापकी अपेक्षा दो, उपर्युक्त प्रकृति आदिकी अपेक्षा चार, और ज्ञानावरणादिककी अपेक्षा आठ भेद होते हैं। तथा इसी तरह अपेक्षाभेदके अनुसार संख्यात असंख्यात और अमंत भेद भी होते हैं। ऊपर जो अघातिकर्मके पुण्य और पाप इस तरह दो भेद बताये हैं उनका स्वरूप और भेद बताते हैं :
पुण्यं यः कर्मात्मा शुभपरिणामैकहेतुको बन्धः ।
सद्वद्यशुभायुर्नामगोत्रभित्ततोऽपरं पापम् ॥ ४०॥ उस कर्मात्मक बंधको कि जिसके प्रधान हेतु जीवके शुभ परिणाम हैं, पुण्य कहते हैं और जिसके प्रधान हेतु जीवके अशुभ परिणाम हैं उसको पाप कहते हैं । इस पुण्य और पापके दो भेद हैं । द्रव्यपुण्य और भावपुण्य तथा द्रव्यपाप और भावपाप । जीवके शुभ परिणामोंके निमित्तसे कर्ता पुद्गलका जो विशिष्ट प्रकृतिरूप परिणमन निश्चयसे कर्मरूपको प्राप्त होजाता है उसको द्रव्यपुण्य कहते हैं। और कर्ता जीवके वे कर्मरूपको प्राप्त
अध्याय
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