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अनगार
हित होजाता है उसी तरह मोहनीय कर्मके उदयसे जीव विषयोंमें मूछित रहा करता है। जिस प्रकार काठमें पैर पड जानेसे मनुष्य इधर उधर नहीं जा सकता उसी प्रकार आयु कर्मके उदयसे जीवको भव धारण करना ही पडता है और उस भवमें रहना ही पड़ता है। वह स्वतन्त्रतासे चाहे जहां गमन नहीं कर सकता । जिस प्रकार चित्रकार अनेक प्रकारके चित्र बनाता है उसी तरह नाम कर्मके उदयसे नारक आदि अनेक अवस्थाएं जीवकी बनती हैं। जिस तरह कुम्भार छोटे बडे वर्तन बनाता है उसी तरह गोत्र कर्मके उदयसे जीवका उच्चनीच व्यपदेश होता है । जिस तरह भण्डारी द्रव्य देनेमें विघ्न डाला करता है उसी तरह अन्तराय कर्मके उदयसे जीवके दानादिक कार्यों में विघ्न उपस्थित हुआ करता है । इस प्रकार जो कर्मस्कन्ध आत्मासे सम्बद्ध होते हैं वे प्रकृतिस्वभावभेदकी अपेक्षासे आठ प्रकारके हैं । इस स्वभावभेदकी अपेक्षासे ही अर्थके अनुसार कर्मोके उपर्युक्त आठ नाम रक्खे गये हैं।
बंधका दूसरा भेद स्थिति है। उपर्युक्त स्वभावसे उन कर्मस्कन्धोंक न छूटनेको जबतक वे कर्मस्कन्ध अपने उक्त स्वभावसे च्युत न होजाय तबतककी कालमर्यादाको स्थिति कहते हैं । जिस प्रकार बकरी गौ मेंस आदिके दूध में स्थिति कालमर्यादा रहा करती है कि उनका माधुर्य-स्वभाव इतने कालतक तदवस्थ रहेगा। इसी प्रकार ज्ञानावरणादि कोंमें भी स्वभावकी कालमर्यादा पडा करती है कि उनका वह स्वभाव इतने कालतक तदवस्थ रहेगा और उस स्वभाववाले कर्मस्कन्ध आत्मासे इतने कालतक सम्बद्ध रहेंगे । इसीको स्थितिबंध कहते हैं। यह स्थिति कमसे कम अन्तर्मुहूर्त और अधिकसे अधिक सत्तर कोडाकोडी सागर तककी होती है। किंतु एकेक समयकी हीनाधिकतासे अनेक प्रकारकी है जो कि ग्रंथान्तरों में बताई गई है।
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बध्याय
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बंधका तीसरा मेद अनुभव है । कर्मस्कन्धोंके रस-सामर्थ्य विशेषको अनुभव कहते हैं। जिस प्रकार बकरी गौ या भेंस आदिके धमें जो पुष्टि आदि अपना कार्य करनेवाली शक्ति है उसमें तीव्र मंद आदिरूप अनेक प्रकारकी विशेषता रहा करती है । उसी प्रकार कर्मपुद्गलोंमें भी अपना अपना कार्य करनेमें सामर्थ्यकी विशेषता रहा
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