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अनगार
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अध्याय
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करती है । इसीको अनुभवबंध कहते हैं । अनुभवबंधके अनुसार इस प्रकारकी सामर्थ्यविशेषसे युक्त परमाणुओंका आत्मासे सम्बन्ध होता है। किंतु प्रकृतिबंध में आस्रव द्वारा आये हुए अष्टकर्मयोग्य पुद्गल आत्मासे बंधते हैं । यही प्रकृतिबंध और अनुभव बंधमें अन्तर है। जहांपर जीवके शुभ परिणाम प्रकर्षतया पाये जाते हैं वहांपर शुभ कर्मोंका अनुभव प्रकृष्ट और अशुभ कर्मोंका निकृष्ट हुआ करता है । और जहां अशुभ परिणाम प्रकर्षतया हुआ करते हैं वहां पर अशुभ कर्मोंका अनुभव तीव्र तथा शुभ कर्मों का अनुभव मंद हुआ करता है । घाति और अघाति भेदकी अपेक्षासे घातिकर्मो की शक्ति लता दारु अस्थि और पाषाण इस तरह चार प्रकारकी होती है। अघाति कर्मों में अशुभ कर्मोंकी शक्ति निम्ब काञ्जीर विष और हालाहल इस तरह चार प्रकारकी और शुभ कर्मोंकी गुड खांड शकर और अमृत इस तरह चार प्रकारकी हुआ करती है। इन उदाहरणोंके अनुसार ही कर्मों के साममें भी विशेषता हुआ करती है । उसीको अनुभव कहते हैं । इस तरहके सामर्थ्ययुक्त परमाणुओंके, आत्माके साथ, बंधनेको अनुभवबंध कहते हैं ।
बंधका चौथा भेद प्रदेशबंध है । बंधनेवाली कर्मपरमाणुओं की संख्या के विषयमें निश्चित इयत्ताको प्रदेशबंध कहते हैं। क्योंकि जो कर्मस्कन्ध ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत होकर आत्माके साथ बंधते हैं उनमें परमाणुओं की संख्या भी निश्चित रहती है। क्योंकि ऐसा होनेपर ही उनका वह स्वभाव स्थिर रह सकता है; और स्वभाव के अनुसार फल भी हो सकता है । क्योंकि पुद्गलस्कन्धमें परमाणुओंकी संख्या में परिवर्तन होनेपर स्वभावादिकमें भी परिवर्तन हो जाना न्यायप्राप्त है ।
इस प्रकार बंधके ये चार भेद हैं जिनका कि लक्षण ऊपर लिखा गया है। ऐसा ही आगम में भी कहा है । यथा -
स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु प्रदेशोंशविकल्पनम् ॥
बंधकी यह विचित्रता उसके कारणभूत कषायादिकोंकी विचित्रतापर निर्भर है; क्योंकि कारणके अनुसार
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