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अनगार
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दृष्टिनसप्तकस्यान्तहेतावुपशमे क्षये। । क्षयोपशम आहोस्विगव्यः कालादिलब्धिभाक् ॥ ४६ ॥ पूर्णः संज्ञी निसर्गेण गृह्णात्यधिगमेन वा ।
त्र्यज्ञानशुद्धिदं तत्त्वश्रद्धानात्म सुदर्शनम् ॥ ४७ ॥ युग्मम् । पर्याप्त संज्ञी और कालादि लब्धियोंको प्राप्त करनेवाला भव्य जीव निसर्गसे अथवा अधिगमके द्वारा सम्यग्दर्शनके घातनेवाली सात प्रकृतियोंके उपशम क्षय अथवा क्षयोपशमरूप अन्तरंग करणके मिलनेपर तत्व श्रद्धानरूप और तीनो अज्ञानों में शुद्धि उत्पन्न करनेवाले सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है।
___ भावार्थ--शक्तिविशेषकी पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं। उसके छह भेद हैं-आहार शरीर इंद्रिय श्वासोच्छास भाषा और मन । ये पर्याप्ति जिसके पूर्ण होगई हैं उसको पर्याप्त कहते हैं। इसी तरह शिक्षा आलाप उपदेश आदिको ग्रहण करनेवाले शाक्ति-मनको संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा जिनके पाई जाय उन जीवोंको संज्ञी कहते हैं। इस तरहके पर्याप्तक और संजी जीवके उपर्युक्त अन्तरङ्ग कारणके तथा कालादि लब्धियों-सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेमें अपेक्षित योग्यताओंके मिलनेपर निसर्ग या आधिगमके द्वारा सम्यग्दर्शन उद्भूत होता है।
इस द्वारकी अपेक्षासे ही सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं-१ निसर्गज, २ अधिगमज । जहां उत्पन्न होनेमें देशना साक्षात् निमित्त न हो वहां निसर्गज सम्यग्दर्शन समझना चाहिये । और जहांपर उत्पन्न होनेमें देशना-परोपदेश साक्षात् निमित्त हो उसको अधिगमज समझना चाहिये । किंतु अन्तरङ्ग कारण दोनोंका ही समान है । सम्यक्त्वके घातनेवाली तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबंधी कषाय इस तरह सात प्रकृतियोंका उपशम या क्षय अथवा क्षयोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें अन्तरङ्ग कारण है। फल देनेवाली शक्तिके उदभृत न होनेको
देशना सामान साक्षात् तीन दृश
अध्याय