________________
धनगार
१६६
अध्याय
प्रश्न – संक्लेशनिवृत्तिको पर्ययवृत्ति किस तरह कहा जा सकता है; क्योंकि जो निवृत्तिरूप है वह प्रवृत्तिरूप नहीं हो सकता । फिर ऊपर जो पर्यायशब्दका अर्थ निवृत्तिरूप किया है सो किस तरह घटित होता है ?
उत्तर - परिशुद्ध बोधको ही पर्यये कहते हैं । और इस पर्ययकी वृत्ति संक्केशसे रहित ही हो सकती है। तभी उसको शुद्ध कह सकते हैं। यह शुद्धोपयोग ही बहिरंग तथा अंतरंग तपके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होकर 'कर्मोंकी शक्तिको क्षीण करनेमें समर्थ हो सकता है । अतएव इस शुद्धोपयोगको ही भावनिर्जरा कहते हैं । और इसके द्वारा अनुभाव - फल देकर अथवा बिना फल दिये ही पूर्वसंचित कर्मोंका एकदेशरूपसे क्षय होना द्रव्यनिर्जरा कहती है ।
द्रव्य निर्जराके भेद और उनका स्वरूप बताते हैं
द्विधाऽकामा सकामा च निर्जरा कर्मणामपि । फलानामिव यत्पाकः कालेनोपक्रमेण च ॥ ४३ ॥
द्रव्यनिर्जरा दो प्रकारकी है--अकाम और सकाम । यथासमय उदयमें आये हुए कर्मों के फल देकर निर्जीर्ण होनेको अकाम निर्जरा कहते हैं । इसीको विपाकजा (सविपाक ) और अनौपक्रमिकी भी कहते हैं। उपक्रमसे अथवा बिना फल दिये ही कर्मोंके निर्जीर्ण होनेको सकाम निर्जरा कहते हैं। इसको अविपाकजा ( अविपाक) और औपक्रमिकी भी कहते हैं।
भावार्थ - यथासमय और, न केवल यथासमय ही किंतु, उपक्रमसे भी फलोंकी तरह कर्मोंके भी फल देने को पाक कहते हैं । जिस तरह आम्र प्रभृति फलोंका पाक जिसमें कि रस आदिका परिणमन होजाता है, दो प्रकार का होता है । एक तो वह कि जो अपने कालके अनुसार स्वयं हो। दूसरा वह कि जो प्रयोक्ता पुरुषके उपाय -- पाल आदिमें देनेसे हो। इसी तरह ज्ञानावरण आदि कमौका पाक भी दो प्रकारसे होता है। अतएव
१६६