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बनगार
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निर्जराके भी दो भेद हैं। जो कर्म स्थितिके अनुसार जिस समयमें फल देनेकी अपेक्षासे पूर्वमें संचित हुआ था उसका उसी समयमें फल देकर निर्जीर्ण होना इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं । जो पालके आमकी तरहसे प्रयोगपूर्वक उदयावलीमें लाकर भोगाजाय और निर्जीर्ण होजाय उस निर्जीर्ण होनेको अविपाक निर्जरा कहते हैं ।
जिसमें बुद्धिपूर्वक प्रयोग किया जाय ऐसे अपने परिणामको उपक्रम कहते हैं। मुमुक्षुओंके शुभ या अशुभ परिणामोंके निरोधरूप संवरसे और शुद्धोपयोगसे युक्त उपक्रमको ही तप कहते हैं। दूसरे साधारण लोगोंकी अपेक्षा अपने या परके सुख या दुःखके साधनोंका बुद्धिपूर्वक प्रयोग भी उपक्रम समझना चाहिये । क्योंकि उपर्युक्त श्लोकमें पर्ययवृत्ति इस शब्दसे सामान्यतः परिणाममात्रका ग्रहण किया है । जैसा आगममें भी कहा है। यथाः
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवतः ।
बुद्धि पूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ जहांपर इष्ट या अनिष्ट कार्य अबुद्धिपूर्वक होते हैं वहांपर अपने दैवकी प्रधानता समझनी चाहिये और जहांपर ऐसे कार्य बुद्धिपूर्वक होते हैं वहां अपने पौरुषकी प्रधानता समझनी चाहिये ।
क्रमप्राप्त. मोक्षतत्वका स्वरूप बताते हैं:येन कृत्स्नानि कर्माणि मोक्ष्यन्तेऽस्यन्त आत्मनः । रत्नत्रयेण मोक्षोसौ मोक्षणं तत्क्षयः स वा ॥४४॥
बध्याय
जिसके द्वारा समस्त कर्म- पहले मोहनीय प्रभृति घातिकर्म, पीछे आयु आदिक अघाति कर्म छूट जाते हैं- परम संवरके द्वारा अपूर्व कर्म आनेसे रुक जात और परम निर्जराके द्वारा पूर्वसंचित कर्म आत्मासे पृथक हो जाते हैं उस रत्नत्रयको-निश्चय सम्यग्दर्शन इ. चारित्रको अथवा इस रत्नत्रयरूप परिणत, आ
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