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धनगार
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बध्याय
परस्पर प्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । एकस्व कार को बन्धो रुक्मकाञ्चनयोरिव ॥
जिस प्रकार अनेक तरहसे रस और शक्तिवाले फल फूलोंको पात्रविशेषमें रखनेपर उनका मदिरा आदि परिणमन होजाता है उसी प्रकार योग और कषायके निमित्तसे आत्माके साथ सम्बन्ध करनेवाले पुगलोंका भी कर्मरूप परिणमन होजाता है। यह परिणमन कारणकी मंदता तंत्रिता आदिके अनुसार मंद तीव्र आदि हुआ करता है । किंतु सामान्यसे बंधके दो भेद हैं- एक भावबंध दूसरा द्रव्यबंध । राग द्वेष या मोहरूप जो जीवके शुभ या अशुभ स्निग्ध परिणाम होते हैं उसको भावबंध कहते हैं । और उसके निमित्तसे शुभ या अशुभरूप परिणत पुगलोंका जीवके साथ परस्परमें संबंध होजानेको द्रव्यबंध कहते हैं; जैसा कि आगममें भी कहा है:
बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो । कम्मादपदेसणं अण्णोष्णपवेसणं इदरो || पय डिट्ठिदिअणुभ्रागप्पदेस भेदा दु चदुविधो बंधो । जोगा पढिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥
प्रश्न – आस्रव और बंध, दोनों ही में मिथ्यात्व अविरति आदि कारण समान बताये हैं; फिर उनमें क्या विशेषता है ?.
उत्तर - प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धोंका आगमन होता है उसको आस्रव कहते हैं । आगमके अनंतर द्वितीयादि क्षण में जो उनका जविपदेशों में अवस्थान होता है उसका बंध कहते हैं। यह भेद है । तथा आस्रवमें योगी मुख्यता है और वंधमें कषायादिककी । जिस प्रकार राजसभामें अनुग्राह्य या निग्राह्य पुरुषके प्रवेश करने में राजाके आदिष्ट पुरुषकी मुख्यता होती है और उसके साथ अनुग्रह या निग्रह करनेमें राजाके आदेश की प्रधानता रहती है । उसी प्रकार आस्तव और बंधके कारणों में भी कथंचित् भेद समझना चाहिये ।
Sans
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