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बनगार
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और अन्तरङ्ग कारण मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए विकारभाव हैं । योगका लक्षण ऊपर लिखा जा चुका है कि मनो वाक्-काय वर्गणाओंके अबलम्बनसे जो आत्मप्रदेशोंका पारिस्पन्द होता है उसको योग कहते हैं । यह भी जीवका ही एक विकार-परिणामविशेष है कि जिसके द्वारा बंधनेवाले कर्म आया करते हैं । आते हुए काँको वा पुण्यपापरूपसे परिणत होकर प्रविष्ट हुओंको विलक्षण रूपमें परिणमाकर उनको भोग्य बना कर जीवके साथ सम्बद्ध करदेना अंतरङ्ग कारणका कार्य है । क्योंकि पूर्वसंचित कोंके उदयसे प्राप्त हुए फलको भोगनेवाले जीवके जो रागद्वेष या मोहरूप स्निग्ध परिणाम होते हैं वे ही कर्मपुद्गलोंको विशिष्टशक्तियुक्त परिणमनको प्राप्त कर अवस्थित करने में निमित्त हैं किंतु योग जीवप्रदेश और कर्मस्कन्धं दोनोंके परस्परमें अनुप्रवेशका कारण है। अत एव वह बहिरङ्ग माना जाता है। इस प्रकार ये दोनो ही जीवके परिणाम-विशेषरूप कारण कर्मोंका फल देनेकेलिये विवश कर देते हैं। आगममें भी ये दो ही बंधके कारण प्रधानतया माने गये हैं। यथाः
जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो।
भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरायदोसमोहजुदो ।। इस प्रकार करण-साधनकी अपेक्षासे यह बंधका लक्षण हुआ। क्योंकि यहांपर बंधके कारणोंका ही प्रधानतया निर्देश किया गया है और असाधारण कारणोंको ही करण कहते हैं। किंतु कर्तृसाधनकी अपेक्षासे कर्मको प्राधान्य दिया जाता है। ऊपर बंधका दूसरा जो लक्षण दिखाया गया है उसमें कर्मकी स्वतंत्रताकी अपेक्षा है। इस अपेक्षासे जो जीवको अपने अधीन बनालेता है और भोक्तृतया आत्माके साथ सम्बद्ध होता है उस कर्मको बंध कहते हैं। इसी तरह तीसरे भावसाधनकी अपेक्षासे जीवऔर कर्मके परस्परमें प्रदेशानुप्रवेश होनेको बंध कहते हैं। यहांपर योगके द्वारा अनुप्रविष्ट हुए जीवप्रदेशवी कर्मस्कन्धोंका कषायादिकके निमित्तसे उत्पन्न हुए विशिष्टशक्तियुक्त परिणमनको धारण कर अवस्थित होना बंध समझना चाहिये । आगममें भी ऐसा ही कहा है, यथाः
अध्याय
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