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अनगार
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उसके ज्ञानदर्शन सुख वीर्य प्रभृति असाधारण गुणोंसे होता है। इन गुणोंका अनुभव शरीरके भीतर ही होता है और उसके समस्त प्रदेशोंमें होता है। इससे सिद्ध है कि आत्माका परिमाण शरीरके बराबर ही है ।
प्रत्येक शरीरमें जीव भिन्न भिन्न है, यह बात दिखाते हैं - __ यदैवैकोश्नुते जन्म जरां मृत्यु सुखादि वा।
तदैवान्योऽन्यदित्यनया भिन्नाः प्रत्यङ्गमङ्गिनः॥ ३२॥ जिस समयमें एक जीव जन्म धारण करता है उसी समयमें दूसरा वृद्ध हो जाता है। या एक बुढ्ढा होता है तो उसी समयमें दूसरा जन्म ग्रहण करता है। जब कि एक सुख और ऐश्वर्यका भोग करता है तो दूसरा उसी समयमें दुःख और दुर्गतियोंको भोगता है। यह जगत्की विचित्रता है, जो कि प्रायः सभीके निर्बाध और वास्तविक ज्ञानमें प्रतिभासित होती है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक शरीरमें शरीरका धारण करनेवाला आत्मा भिन्न भिन्न ही है। " जीव पृथिवी आदि भूतोंका ही कार्य है " इस बातका, चार्वाकको लक्ष्य करके खण्डन करते हैं:
चितश्चेत् क्ष्मायुपादानं सहकारि किमिष्यते ।
तश्चेत् तत्त्वान्तरं तत्त्वचतुष्कनियमः क सः ॥ ३३ ॥ . “जीव पृथिवी आदि भूतोंका कार्य है," चार्वाककी इस कल्पनापर सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि वह भूतचतुष्पका कार्य है तो भृतचतुष्टय उसका उपादान कारण है या सहकारी कारण ? यदि
१,२-जी कार्यरूप परिणत होजाय उसको उपादान कारण कहते हैं, और जो कार्यके उत्पन्न होनेमें बाह्य सहायक हो उसको सहकारी या निमित्त कारण कहते हैं।