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बनमार
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बध्याय
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शस्ताशस्तेन कर्मप्रकृतिपरिणतिं पुद्गला ह्यास्रवन्ति । आगच्छन्त्यास्रवोसावकथि पृथगसद्हग्मुखस्तत्प्रदोष, - प्रष्ठो वा विस्तरेणास्रवणत मतः कर्मताप्तिः स तेषाम् ॥ ३६ ॥
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योगके द्वारा कर्मप्रकृतिरूप परिणमनको - पुद्गलत्व की अपेक्षा धौव्य एवं परिणमनकी अपेक्षा पूर्वाकार के परिहार तथा उत्तराकारकी प्राप्तिको धारण करते हुए और ज्ञानावरणादि कर्मरूप होनेके योग्य तथा जीवके समानस्थानवाले कर्मवगणारूप पुद्गल जीवके जिन प्रशस्त या अप्रशस्त - शुभ या अशुभ भावोंसे आते हैं उनको आस्रव कहते हैं । इसीके विस्तारदृष्टिसे मिथ्यादर्शन प्रभृति तथा तत्प्रदोषादिक विशेष भेद गिनाये हैं । अथवा योगोंके द्वारा ज्ञानावरणादिके योग्य पृनलोंके आनंको भी आस्रव कहते हैं। यहांपर आनेका अर्थ उनका ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन होना है। आस्रव के इन दो लक्षणों में से पहला भावास्रवका और दूसरा द्रव्यासवका लक्षण समझना चाहिये। क्योंकि जीवके भावोंसे कर्म आते हैं, उनको भावास्रव और कर्मयोग्य पुलोंके आनेको द्रव्यासव कहते हैं । यथा-
आसवदि जेग कम्मं परिणामेणप्पणो स विणणेओ । भावासवो जिणुतो कम्मासचणं परो होदि ॥
ates जिन परिणामोंसे कर्म आते हैं उनको भावास्रव और कर्मोंके आनेको द्रव्यासव कहते हैं ।
१ " मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः " । इस सूत्रमें बताये हुए ।
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" सत्प्रदोषनिन्हवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो: " इत्यादि सूत्रोंके द्वारा उक्त 1
अ. भ. २०
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