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अनगार
सकार्य चेतयन्तेऽस्तप्राणित्वा ज्ञानमेव च ॥ ३५ ॥ स्थावर-पृथिवीकायिकसे लेकर वनस्पति पर्यत पांचों ही प्रकारके सभी एकन्द्रिय जीव, मुख्यतया कर्मफलका अनुभव करते हैं। जो द्वीन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रियतक त्रस जीव हैं वे सभी कर्मके साथ साथ कर्मफलका भी अनुभव करते हैं। जिनकी प्राणिता अस्त हो चुकी है--जिनके द्रव्यप्राण और उसके कारण नष्ट हो चुके हैं ऐसे जीव ज्ञानका ही अनुभव करते हैं। . सुखदुःखरूप कर्मफलके अनुभवको कर्मफलचेतना, प्रवृत्तिकी कारणभूत क्रियाओंकी प्रधानता उत्पन्न हुए सुखदुःखरूप परिणामोंके अनुभवको कर्मचेतना, स्वतः आत्मासे अभिन्न अत एव स्वाभाविक सुखके अनुभवनको ज्ञानचेतना कहते हैं। इनमेंसे कर्मफलचेतना मुख्यतया स्थावरजीवोंके मुख्यतया कर्मचेतना और गौणतया कर्मफलचेतना त्रसजीवोंके, तथा मुख्यतया ज्ञानचेतना और गौणतया कर्मफलचेतना तथा कर्मचेतना द्रव्यप्राणरहित जीवोंके होती है। व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दृष्टिसे प्राणरहित जीव क्रमसे दो प्रकारके हैं-एक जीवन्मुक्त, दूसरे परममुक्त। जो परममुक्त हैं उनके कर्म और कर्मफल सर्वथा निर्जीर्ण हाचुके हैं और वे अन्यत कृतकृत्य हैं; अत एव वे उक्त प्रकारके ज्ञानका ही अनुभव करते हैं । किंतु जो जीवन्मुक्त हैं वे मुख्यतया ज्ञानका और गौणतया उक्त दोनो चेतनाओंका अनुभव करते हैं; जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। कर्मफलचेतना और कर्मचेतना दोनोंको अज्ञानचेतना कहते हैं। क्योंकि दोनोंमें ज्ञानसे भिन्नताका प्रत्यय होता है- कमचेतनामें "ज्ञानसे भिन्न इसका मैं कर्त्ता हूं" ऐसा, और कर्मफल चेतनामें, "ज्ञान मे भिन्न इसको मैं भोगरहा हूं" ऐसा अनुभव होता है । ये दोनो ही जीवन्मुक्तके इसलिये गौण होजाते हैं कि उनके बुद्धिपूर्वक कर्मोंके कर्तृत्व और उनके फलके भोक्तृत्वका विनाश होजाता है।
अब क्रमप्राप्त आस्रवतत्त्वका स्वरूप बताते हैं:ज्ञानावृत्त्यादियोग्याः सहमधिकरणा येन भावेन पुंसः,
बध्याय
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