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अनगार
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ऊपर कर्मवर्गणाओंके विषय में जो बिके : समानस्थानबाले ऐसा विशेषण दिया है, उसका अभिप्राय यह है कि कर्मका सम्बंध जीवके जितने प्रदेश हैं उन सबके साथ. होता है। न तो जीवके बाहर संबंध होता है और न जीवके किसी प्रदेशको छोडकर ही होता है । अत एव आस्रव भी जीवके समस्त ही प्रदेशोंमें होता है। क्योंकि जीवके जिन परिणामोंसे कर्म आते हैं वे समस्त प्रदेशोंमें ही हो सकते हैं । क्योंकि जीव अखण्ड द्रव्य है । उसमें किसी भी गुणका कोई भी परिणमन समस्त द्रव्यमें ही हो सकता है।
जीवके परिणामोंसे जो पुद्गल आते हैं वे आत्माको प्राप्त होकर. परस्परमें अत्यंत अवगाढताको धारण करलेते हैं - एक दूसरेके प्रदेशोंमें प्रवेश कर अवस्थित होजाते हैं और कर्मरूप परिणमन करलेते हैं। यथाः
___अत्ता कुणदि सहावं तत्थगदा पुग्गला सहावेहिं ।
गच्छति कम्मभावं अण्णोण्णा गाढमवगाढा ॥ • भावास्रवके भेद गिनाते हैं:-- मिथ्यादर्शनमुक्तलक्षणमसुभ्रंशादिकोऽसंयमः, शुद्धावष्टविधौ दशात्मनि वृषे मान्धं प्रमादस्तथा। क्रोधादिः किल पञ्चविंशतितयो योगस्त्रिधा चास्रवाः,
पञ्चते यदुपाधयः कलियुजस्ते तत्प्रदोषादयः ॥ ३७॥ भावासबके पांच भेद हैं, मिथ्यादर्शन १ असंयम २ प्रमाद ३ कषाय ४ और योग । इन्हीके विशेष भेद तत्प्रदोषादिक हैं; जैसा कि पहले कहा जा चुका है और जिनसे कि कर्मोंका बंध होता है ।
मिथ्यादर्शन-इसका लक्षण पहले " मिथ्यात्वकर्मपाकेन" इत्यादि श्लोककी व्याख्याद्वारा बताया
अध्याय