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अनगार
धर्म
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SEARSHA
उसमें भी एक क्षणमें समस्त कार्योंके उत्पन्न होनेका पूर्वोक्त दोष उपस्थित होगा। इसपर कहा जा सकता है कि यह दोष तब आ सकता है जब कि उसको युगपत् अर्थकृत माना जाय । किंतु हर्म उसको क्रमसे अर्थकत मानते हैं। पर यह कहना भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि वणिकमें भी क्रम ! यह कस हो सकता है कि वस्तु क्षणिक भी हो और क्रमसे कार्यकारी भी हो? इस प्रकार विरुद्ध निरूपण करना एक आश्चर्यकी बात है। क्योंकि यह बात उन्होंने मानी है कि वस्तु देश या कालका अनुवर्तन नहीं करती। जैसा कि
“यो यत्रैव स तत्रैव यो यदेव तदेव सः।
न देशकालयोया तिभीवानामिह विद्यते ॥" अर्थात् - पदार्थ देश और कालको व्याप्त करके नहीं रहते । किंतु जो जहां है वह वहीं रहता और जो जिस कालमें हैं वह उसी कालमें रहता है। जीव कथंचित् मूर्त है इस बातको बताते हुए उसके साथ होनेवाले कर्मबन्धका समर्थन करते हैं:
खतोऽमूर्तोपि मूर्तेन यद्गतः कर्मणैकताम् ।।
पुमाननादिसंतत्या स्यान्मूर्तो बन्धमेत्यतः ॥ २८ ॥ यद्यपि जीव स्वतः स्वभावसे अमृत है-रूप रस गंध स्पर्शसे रहित है। फिर भी मूर्त कर्मों के साथ इस तरह एकताको प्राप्त होगया है जिस तरहसे कि क्षीरमें नीर मिल जाता है। कर्मोंकी यह संतान अनादि कालसे चली आती है। जिस तरह बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीज होनेका प्रवाह अनादि है, उसी तरह कर्मोंसे जीवकी मूर्तता और उससे पुनः कौके संचय होनेका प्रवाह अनादि है। इसी प्रवाहके कारण जीव व्यवहारसे मूर्त माना जाता है। क्योंक दोनोंके प्रदेश परस्परमें इस तहरसे प्रवेश कर जाते हैं-एकके प्रदेश दूसरे द्रव्यके
। १-दि. जैन सिद्धान्तको माननेवाले ।
अध्याय