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अनगार
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नित्यं चेत्स्वयमर्थकृत्तदखिलार्थोत्पादनात् प्राक क्षणे, . नो किंचित् परतः करोति परिणाम्येवान्यकाक्षं भवेत् । । तन्नतत् क्रमतोर्थकृन्न युगपत् सर्वोद्भवाप्तेः सकृन्,
नातश्च क्षणिकं सहार्थकृदिहाव्यापिन्यहो कः क्रमः ॥ २७ ॥ वस्तुको यदि सर्वथा नित्य माना जाय तो यह प्रश्न होता है कि वह कूटस्थ नित्य है या परिणामी नित्य ? प्रथम पक्ष प्रत्यक्षविरुद्ध है । अत एव यदि दूसरा पक्ष माना जाय तो यह प्रश्न होता है कि उसका परिणमन किस प्रकारसे होता है? क्योंकि पारणमन दो प्रकारसे हो सकता है। एक तो बाह्य सहकारी कारणोंकी अपेक्षा न रखकर स्वयं अपनी ही सामर्थ्यसे । दूसरा, सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखकर । इनमेंसे यदि पहला पक्ष माना जाय तो वह वस्तु जिस जिस कार्यरूप परिणमन करनेकी योग्यता रखती है उन सभी कार्योंकी उत्पत्ति एक ही क्षणमें हो जा सकती है। क्योंकि उन कायाँको अपने उत्पन्न होनेकेलिये वस्तुकी उपादान शक्तिके सिवाय किसी बाह्य कारणकी अपेक्षा नहीं है । ऐसा होजानेपर एक ही क्षणमें समस्तकार्यरूप परिणत होजानेसे कारणवस्तु द्वितीया द क्षणों में कुछ भी परिणमन नहीं कर सकती । अत एव पहला पक्ष ठीक नहीं ठहरता-नित्य होकर भी वस्तु स्वयं अर्थकृत् सिद्ध नहीं होती । इसकेलिये यदि दूसरा पक्ष माना जाय तो उसका अर्थ यही होगा कि वस्तु परिणामी ही है ।-प्रतिक्षण उसमें उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता लक्षण रहता है - वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। अत एव यही कहना चाहिये कि वस्तु नित्य माननेपर दोनो ही अवस्थाओंमें अर्थकृत सिद्ध नहीं हो सकती । न तो क्रमसे ही कार्यकारी सिद्ध हो सकती है और न युगपत् ही। क्योंकि एक ही क्षणमें सब कार्योंके उत्पन्न होनेका दोष उपस्थित हो सकता है; जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। यहांपर बौद्धादिक जो कि क्षणिकवादी हैं, कह सकते हैं कि यदि नित्य वस्तु कार्यकारी सिद्ध नहीं होती तो ठीक है। किन्तु क्षणिक वस्तु तो अर्थकृत् सिद्ध हो सकती है। किन्तु उनका भी कहना सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि
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अध्याय
HISHASAATRAUpan
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